भादरवा : २४८८ : ७ :
संयोगी द्रष्टि अने स्वतंत्र स्वभावनी द्रष्टि बेउमां महान अंतर छे.
अज्ञानी दया, दान, व्रत, तप, करे, प्रतिकूळताने सहन करे, एकनो एक पुत्र मरे तोय रडे नही, आम
होवा छतां ते धर्मी छे एम नथी.
श्रेणीकाराजा माथुं पछाडी देह छोडे छे, छतां धर्म अने भेद विज्ञान चालु छे. देह छोडवा टाणे पण
तीर्थंकर नामकर्म बंधावुं चालु छे. देह अने रागने हुं अड्यो ज नथी, समस्त परभावमां एकताबुद्धि तोडी छे.
अने चैतन्य अविनाशीमां द्रष्टि जोडी छे तेथी तेने दरेक समये संवर–निर्जरारूपी धर्म थाय छे.
हवे सम्यग्द्रष्टिना निःशंकित आदि चिन्हो विषेनी गाथाओनी सूचनारूपे काव्य कहे छे–तेनो अर्थ–
टंकोत्कीर्ण एवुं जे निजरसथी स्वपरप्रकाशक सामर्थ्यनी भरपूर ज्ञान तेना सर्वस्वने अनुभवनार शुद्धात्माने
ज समस्तपणे श्रद्धा–ज्ञानमां ग्रहण करनार सम्यग्द्रष्टिने जे निःशंक्ति आदि निश्चय आठ चिन्हो छे ते
(सूर्यनां किरणो अंधकारने हणे छे तेम) समस्त कर्मने हणे छे, अने व्यवहार आठ अंग छे ते पुण्य बंधनुं
कारण छे.
ज्ञानी खावा बेठो होय त्यारे पण तेने निर्जरा छे. अज्ञानी उपवास करी ध्यानमां बेठो होय त्यारे
पण हुं आ छोडी शकुं छुं, हुं निमित्त छुं तो शरीरनी क्रिया छे एम माने छे तेथी तेने क्षणे क्षणे मिथ्यात्वनुं
महापाप बंधाय छे.
बाह्य द्रष्टिवाळाने आ समजवुं अघरूं पडे एम छे.
ज्ञानी राज्यमां बेठो होय, लडाईमां ऊभो होय तो पण एकताबुद्धिए रागना उदयमां जोडातो नथी
तेथी तेने निरंतर निर्जरा थाय छे–चोथा गुणस्थाने श्रेणिक अथवा भरत चक्रवर्ती हजारो राजा वच्चे बेठो
होय, खमा अन्नदाता थतुं होय, एमां एनी द्रष्टि नथी पण चैतन्य आनंदकंद उपर द्रष्टि छे. त्रणेकाळनां
परद्रव्यो अने सर्व रागादि ऊपरथी तेणे द्रष्टि हठावी लीधी छे. समस्त कर्मने हणनारी द्रष्टि तेने होवाथी ते
अल्पकाळमां कर्मोदय अने अशुद्धिताने तोडीने मुक्त थशे, श्रद्धामां तो मुक्त ज छे.
पुण्यपापना विकल्प ऊठे ते त्रणकाळमां मारामां नथी. अंतर्मुखद्रष्टि थतां संयोग अने विकारनुं
स्वामीपणुं ऊडी जाय छे, एवी निःशंक द्रष्टिनां बळथी क्षणे क्षणे ज्ञानीने शुद्धि थाय छे.
नित्य चैतन्य स्वभावना आश्रयपूर्वक
अनित्यभावना (श्री शुभचंद्राचार्य देव)
(श्री शुभचंद्राचार्य देव)
नित्य विज्ञानघन चिदानंदमय आ आत्मानो महिमा बताववा माटे मानी लीधेला वैभवनी
अनित्यता बतावे छे.
आ जगतमां जे कंई एश्वर्यवैभव के जे देखवामां तो मोहीजनोने अतिसुंदर देखाय छे. पण देखतां
देखतां ज वादळांनी जेम विलय पामी जाय छे.
जेम नदीनी लहेरो चाली जाय छे ते फरी पाछी आवती नथी तेम लौकिक विभूति आवी ने गई फरी
पाछी आवती नथी. आ प्राणी मोहथी ईष्टअनिष्ट मानी वृक्षा ज हर्ष विषादने उत्पन्न करे छे. नदीनी लहेरो
कदाच पाछी आवे पण मनुष्योने गयेलुं रूप बलादि तथा धर्म पामवाने योग्य अवसर फरि पाछा आवता
नथी. आ प्राणी व्यर्थ अन्यने आधार शरण मानी आशा बांधतो रहे छे. आयु अने यौवन केवा छे के
अंजली जळ समान तथा पांदडा पर पडेला जळबिन्दु समान छे. आ प्राणीवृथा शरीरादिने कायम राखवानी
ईच्छा करे छे.
मनोज्ञ विषयोना संयोग पण स्वप्न समान छे तेमां ममत्व थतां जीव पोतानुं सर्वस्व हारी जाय छे.
महर्षियोए जीवोने कुळ, कुटुंब बळ, अलंकार धनादिकने क्षणभंगुर वादळां समान कहेल छे. आ मूढ प्राणी
व्यर्थ ज तेमां नित्यनी बुद्धि करे छे.