: १० : आत्मधर्म : २२७
भावार्थ:– आ रीते सम्यग्द्रष्टिने आत्मशक्तिनी वृद्धि थती होवाथी, अज्ञान वडे जे बंध थतो हतो ते
थतो नथी. कर्मनी निर्जरा छे अने आत्मा पुष्ट थाय छे.
आत्मवीर्यनी गति चैतन्यमां ढळी छे तेथी तेनी पर्याय पुष्ट थाय छे.
अल्पज्ञता, राग अने निमित्तना माहात्म्यनी द्रष्टि छोड अने निर्विकार सर्वज्ञ स्वभावनुं माहात्म्य
कर. ए सम्यग्दर्शन पामवानो उपाय छे.
मोक्षना राहे गयो ते मोक्षनी नजीक थाय छे. अल्पकाळमां केवळज्ञान लेवानी ते तैयारी करी रह्यो छे.
सम्यग्द्रष्टिने पर्यायमां निर्बळता छे पण अभिप्रायमां निर्बळता–कायरता के ओछप नथी, अभिप्राय
तो पूर्ण परमात्मानो स्वीकार करनार छे.
पूर्ण सर्वज्ञ स्वभावनी रुचिमां ते विभावनी रुचि थवा देतो नथी. आ रीते त्रिकाळ ज्ञायक
स्वभावना महिमानी द्रष्टि थई तेमां अनंत सवळो प्रयत्न (उद्यम) छे.
असंग ज्ञानानंद स्वरूपने ओळखी तेना श्रद्धा–ज्ञाननुं अनंत बळ देनारो आ आत्मा छे, एम जाणी
अंतरमां समावुं ते सुखी थवानो उपाय छे.
दुःखथी मुक्त थवुं होय तेणे ज्ञान–आनंदस्वभावनी समीप आवी जवुं, बाकी कोई उपाय त्रणकाळ
त्रण लोकमां नथी. समाधीना योग बळथी देशने दुःखथी मुकावी देशुं, स्वर्ग नीचे उतारशुं एवी अन्यमतनी
वातो अज्ञानीने मीठी लागे छे. पण दुःख क््यां छे? केम थयुं छे? तेनी तेने खबर ज नथी. जीव नित्य आनंद
स्वरूपे छे, आनंद शक्तिनुं सत्त्व तुं छे, तेनाथी विरुद्धता ते दुःख छे. संयोगथी सुख के दुःख नथी. तारी
दशामां ऊंधा पुरुषार्थथी आनंद स्वभावने तुं भूल्यो छे ते दुःख छे. परसन्मुख द्रष्टिमां तारा दुःखनो सागर
भर्यो छे. स्व सन्मुख द्रष्टिमां तारा सुखनो सागर भर्यो छे. शरीरमां क्षुधा, तृषा के रोगथी दुःख नथी, पण
तारी दशामां ऊंधी मान्यताथी दुःख छे.
अंतर द्रष्टि वडे कर्मोदयने जीते छे एटले स्वभावने प्रगट करे छे ए ज आनंदनो उपाय छे.
गा. २३४ टीका–कारण के धर्मी जीव टंकोत्कीर्ण जागती चैतन्यज्योत ते हुं एवी द्रष्टि होवा छतां नबळाईथी
च्युत थाय तो तेने सम्यक् रत्नत्रयरूप अंतरंगना मार्गमां स्थित करतो होवाथी स्थिति करण युक्त छे.
बीजाने पण रत्नत्रयथी भ्रष्ट देखी स्थिर करवानो भाव आवे छे ते व्यवहार स्थितिकरण छे.
तत्त्वार्थ सूत्रमां मार्गथी न डगवा निर्जरार्थे परिसह सहन करवानुं कह्युं छे ते निश्चयथी छे. स्वतंत्र
स्वभावनुं भान करे ते भले कदाच ८ वर्षनी बालिका होय छतां सम्यग्दर्शन पामी जाय. ते भेद ज्ञानथी
अपूर्व आंतरो पाडे के अमे तो नित्यज्ञानानंद आत्मा छीए, शरीर अने रागादि अमे नथी, देहनां कार्य
अमारां नथी, आम स्वभाव भासन रूप भेदज्ञान होवा छतां कदाच कोई परणे पण भान न भूले.
सम्यग्द्रष्टि राज्यमां होय के नरकमां होय पण तेने स्वलक्षे शुद्धिनी वृद्धि थया करे छे.
कोईने प्रश्न थाय के त्यां तो अशुभ भाव पण आवे छे, तो शुद्धिनी वृद्धि केम थाय? तो तेने कहे छे के
भाई! स्वभावद्रष्टिनी तेने मुख्यता छे तेथी शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. चक्रवर्ती राजाने हजारो राणीओ छे माटे
निर्जरानो नियम तेने लागु न पडे एम नथी.
सम्यग्द्रष्टि चारे गतिमां गमे त्यां होय, स्त्री, पुरुष, के नपुंसक होय तो पण तेने निर्जरा थया ज करे
छे. ते नरकादि क्षेत्रमां नथी पण आत्मामां छे. श्रेणिक राजानो जीव भविष्यमां तीर्थंकर थशे, अत्यारे नरकमां
छे. त्यां पण तेने क्षणे क्षणे शुद्धि द्वारा निर्जरा थाय छे.
योगेन्द्रदेव कृत योगसार दोहामां आवे छे के–“सम्यग्द्रष्टि जीवने दुर्गति गमन न थाय, कदि थाय तो
दोष नहीं, पूर्व बद्ध क्षय थाय” नरकमां होय तो पण तेनी द्रष्टि रागादिमां अने संयोगोमां नथी. ते सर्वथी
पृथक् एवा ज्ञायक स्वभावमां छे. स्वभावनी द्रढताथी वारंवार अंतर अवलोकन करवावाळो सम्यग्द्रष्टि होय
छे. तेथी तेने निर्जरा थाय छे.