Atmadharma magazine - Ank 227
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : २२७
स्वरूप साधनामां रागना साधननी जरूर नथी. जे ज्ञाननी दशा आत्मा तरफ वळे छे ते ज साधन
छे. प्रज्ञा ज छेदन स्वभाववाळुं करण छे. बीजुं कोई करण नथी.
प्रज्ञा वडे आत्मा अने विकारनी भिन्नता थतां ज्ञाननी दशामां जुदापणुं अवश्य भासे छे.
प्रश्न:– रागनुं लक्ष छोडवापणामां कर्तापणुं आत्मानुं छे?
उत्तर:– राग थयो तेने कापवो शुं? अने जे राग थयो ज नथी तेने छेदवो शुं? पण चैतन्य उपर लक्ष
गयुं तेने राग उत्पन्न ज थयो नहीं, तेने छेध्यो–नष्ट कर्यो एम कहेवाय छे. प्रज्ञारूपी करण वडे ज आत्मा
अने बंध जुदा कराय छे.
अहीं प्रश्न थाय छे के:– भगवान आत्मा चेतक अने राग–विकल्प चेत्य छे,–पर ज्ञेय छे. भगवान
आत्मा तेनो जाणनारो छे एवा चेत्य–चेतक भाव वडे अत्यंत निकटताने लीधे आस्रवतत्त्व अने आत्मतत्त्व
एक अनुभवाय छे, तेने खरेखर कई रीते छेदी शकाय?
एवा प्रश्ननुं समाधान श्री आचार्यदेव कहे छे:– मोक्ष एटले बंधनथी मूकावुं अथवा पोतानी परिपूर्ण
पवित्र दशानुं प्रगट थवुं.
आत्मा चेतक छे, राग–द्वेषना भाव चेत्य छे ते बेनुं एकपणुं भासे छे तो ते बेने जुदा कई रीते पाडी
शकाय? एवी जेने झंखना थई छे एवा शिष्यनो प्रश्न छे.
भगवान आत्मा चैतन्य चमत्कार ज्ञायक स्वभावी छे अने क्रोधादि भाव ते बंधस्वभावी छे.
बंधतत्त्व अने ज्ञायकतत्त्व बन्ने एक नथी. जेम खाणनी अंदरना पथ्थरमां सांध होय छे तेमां सुरंग नाखे
तो लाखो मण पथ्थर छूटा पडी जाय, तेम ज्ञायकभाव अने दया, दान आदि भावनी सूक्ष्म सांधमां प्रज्ञा
छीणी सावधान थईने नाखवाथी बंध छेदी शकाय छे, स्व तरफ झूकवाथी रागना परिणाम तेनाथी भिन्न पडी
जाय छे. आ धर्मनी क्रिया छे.
लोको शरीरनी क्रियाथी धर्म माने छे पण आत्मामां शरीर छे ज नहि तो पछी तेनाथी धर्म केम थाय?
न ज थाय.
जीव ज्यां सुधी स्वरूप सन्मुख न थाय त्यां सुधी स्वभावनी प्राप्ति थाय नहि. आचार्यदेव कहे छे के:–
अंतर्मुख चालती प्रज्ञारूपी क्रियावडे आत्मा अने राग जुदा थई जाय छे एम अमे जाणीए छीए. आम
छद्मस्थ मुनि पंचमआराना संत कहे छे, केवळ ज्ञानीने पूछवा जवुं पडतुं नथी.
लोकोने बहारनी वातमां, शुभराग अने व्यवहारनी क्रियामां होंश आवे छे अने तेथी कहे छे के आवी
वातो सांभळतां व्यवहार अने शुभभावमांथी अमारी होंस ऊडी जाय छे तो तेने ज्ञानी कहे छे के आम
समजतां–व्यवहारमांथी होंस ऊडी जाय तो शुं वांधो छे? निश्चयमां होंस आवशे.
पुण्यथी धर्म माने छे एवो मिथ्याद्रष्टिजीव शातावेदनीयनी स्थिति उत्कृष्ट १प क्रोडाक्रोडी सागरोपमनी
बांधे छे. पण त्रसनी–उत्कृष्ट स्थिति तो बे हजार सागरोपमनी छे. तेथी एटली मोटी स्थिति भोगववानुं
कोई स्थान नथी पण तेनी द्रष्टि विकार उपर छे तेथी शुभ पलटी पाप थई जशे अने पुण्यनी १प क्रोडाक्रोडी
सागरनी स्थिति तोडीने एकेन्द्रियमां चाल्यो जशे.
सम्यग्द्रष्टिने पुण्यनी स्थिति अंत: क्रोडाक्रोडी सागरोपमनी बंधाय छे; मिथ्याद्रष्टिने पुण्यनी स्थिति वधु
बंधाय छे. कर्मनी स्थिति ते तो संसारनी स्थिति छे. शुभभावमां तने शुं लाभ छे भाई? अहीं तो कहे छे के
शुभभावने अने आत्माने कोई संबंध नथी. अहीं बन्नेने भिन्न पाडवा छे तेथी शुभभाव ते साधन नथी.