Atmadharma magazine - Ank 227
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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भादरवा : २४८८ : १३ :
निमित्त देखीने शुभभावने व्यवहारे साधन कहेवाय छे पण खरेखर ते साधन नथी.
विकल्प ऊठे छे ते लक्षण बंधनुं छे अने स्वभावमां एकाकार थवुं ते स्वलक्षण चैतन्य आत्मानुं छे.
आत्मानुं स्वलक्षण चैतन्य छे. ते अन्य द्रव्योमां भेळसेळ नथी, चैतन्य बीजा द्रव्योमां नथी.
आत्मानुं चैतन्य लक्षण चैतन्य गुणमां व्यापीने प्रवर्ते छे ते सहवर्ती ज्ञान गुण छे केमके एमने एम
रहे छे अने निवर्ततुं थकुं जे जे पर्याय (भाव) ने ग्रहण करे एटले पूर्व पर्यायथी निवर्ततुं थकुं नवी पर्यायने
ग्रहण करीने निवर्ते छे; (नवी पर्यायने ग्रहण कर्या विना निवर्ते एम थतुं नथी) अहीं ज्ञाननी पर्यायनी
वात छे. विकारनी वात नथी.
आत्मानुं चैतन्य लक्षण एम ने एम रहेतुं थकुं रह्युं छे अने नवी पर्याय ग्रहण करतुं थकुं, जुनी
पर्यायथी निवर्ततुं थकुं एमांने एमां गुण पर्यायमां प्रवर्ते छे–निवर्ते छे.
आ मूळमार्ग जेने सांभळवा मळे नहि, विचारवानो प्रसंग रहे नहि तेने सम्यग्दर्शन थाय क््यांथी?
न ज थाय. तारा अज्ञाननो पण महिमा एवो छे के अशुद्धता पकडे तो छोडतो नथी, जेम मकोडो ढींढुं टूटी
जाय तो पण पक्कड छोडे नहि तेम.
सर्वज्ञ भगवाने व्यवहारनुं विधान कह्युं ज नथी, भगवाने तो चारे अनुयोगमां पोताना
चैतन्यस्वरूपनी अनुभूतिनुं ज विधान कह्युं छे.
साथे रहेनारा गुण अने क्रमे प्रवर्तती पर्यायो ते बधुं आत्मा छे तेम लक्षित करवुं–लक्षणथी ओळखवुं
कारण के आत्मा चैतन्य लक्षणथी लक्षित छे. राग लक्षणथी लक्षित नथी. जो आत्मानुं लक्षण राग होय तो ते
सदा साथे रहेवुं जोईए अथवा सिद्ध दशामां पण रहेवुं जोईए पण तेम बनतुं नथी. पुण्यपापनी पर्यायो ते
बंधतत्त्व छे. ते पर्यायो खरेखर आत्मानी नथी.
वळी ते कर्मथी पण थई नथी, ते तो परलक्षे थयेल औपाधिक भाव छे. भगवाने कह्युं के तारुं ज्ञान
स्वरूप अंदर पड्युं छे ते ज तारुं शरण छे, बहारमां क््यांय शरण नथी, पवित्रतानी प्राप्ति करनार अने
अपवित्रतानो नाश करनार आत्मा पोते ज मंगळिक स्वरूप छे.
सहवर्ती ज्ञान अने क्रमवर्ती पर्यायो साथे चेतननुं अविनाभावपणुं होवाथी चिन्मात्र आत्मा छे एम
निश्चय करवो. ते ज आत्मानुं नियत स्वलक्षण छे. हवे बंधना स्वलक्षण विषे कहेवाय छे.
बंधनुं लक्षण आत्मद्रव्यथी जुदुं छे, व्यवहार रत्नत्रय पण आत्मद्रव्यथी भिन्न छे ते राग लक्षणथी
लक्षित छे. पण वीतराग न थाय त्यां सुधी वच्चे व्यवहार रत्नत्रय आवे छतां ते बंध भाव छे, ते चैतन्य
लक्षणथी लक्षित नथी. भगवाननी पूजा, जात्रा, दया, दान आदिना भाव ते वीतराग भाव नथी, ते बधा
शुभराग छे, तेमां धर्म मानवो ते मिथ्यात्व छे.
दया–दानादि भावोनुं कर्तव्य मारुं अने तेनाथी मने धर्म थाय एम स्वीकारे ते मिथ्यात्व छे, ते बंधनुं
लक्षण छे माटे आत्मा साथे रागादि साधारणपणुं धारता नथी, एकपणे भासता नथी, कारण के तेओ सदाय
चैतन्य चमत्कारथी भिन्नपणे प्रतिभासे छे.
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनुं निधान छे, तेनुं अने रागनुं एकपणुं भासतुं नथी. एक
अनाकुळता अने बीजी आकुळता बन्ने एक नथी, एक होय तो छूटा पडी शके नहि,–
वळी जेटलुं चैतन्य एटले जाणकस्वभाव, आत्मानां समस्त पर्यायमां व्यापतुं प्रतिभासे छे, तेटला
रागादि व्यापता प्रतिभासता नथी. ते बन्नेनुं भिन्नपणुं जेने भास्युं तेनो अल्पकाळे अवश्य मोक्ष थाय छे.
आ धर्मनी क्रिया छे, तारी शुद्धता अने आनंदनी