: १६ : आत्मधर्म : २२७
अधर्म द्रव्य अने आकाश द्रव्य एक एक ज छे, काळ द्रव्य (कालाणुं द्रव्यो) असंख्यात छे. तेमांथी कोई वधतां
–घटतां नथी. त्रणे काळे द्रव्य अनंतानंत छे अने जिनेन्द्रदेवे ते बधायने (प्रत्येकने) अनंतधर्मात्मक कह्यां छे.
दरेक दरेक द्रव्य पोताना स्वरूपथी ज छे अने परस्वरूपथी नथी तेथी प्रत्येक समये प्रत्येक द्रव्यमां पोतपोताना
अनंतगुणनी अनंत पर्यायो अनंतधर्म सहित उत्पन्न थाय छे अने ते ज समये जूनी पर्यायो नष्ट थाय छे.
ए रीते अनेक छे तो पण द्रव्य तो सदा पोताना गुणपर्यायोथी एकरूपे टकी रहे छे.
द्रव्यमां पर्यायोनो प्रवाह अनंतानंत थवा छतां द्रव्य अनंतानंत शक्तिरूप रहे छे. कोई प्रकारे तेनी
अनंतानंत ताकातमां बाधा आवती नथी. न तो कदी पर्यायोनो अंत आवे, के न तो द्रव्यनो अंत आवे.
द्रव्यमां जे कंई जेटली शक्ति छे ते ते पणे छे अने पर पणे नथी, परना आधारे नथी तेथी खरेखर परना
कारणे द्रव्यनी कोई पण शक्ति नथी,
दरेक द्रव्य पोतानां द्रव्य क्षेत्र, काळ अने भावथी छे अने पर द्रव्यनां द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावथी नथी.
आम प्रत्येक वस्तु पोते ज स्वतंत्रपणे टकीने पोतपोताना अनंतधर्मनी मर्यादामां बराबर वर्ते छे.
ए रीते वस्तु स्वरूप खरेखर अनंतधर्मात्मक होवाथी जैन धर्ममां तेने अनेकान्त कहेल छे. जैनधर्मनुं कथन
कहो के वस्तुस्वरूप कहो बन्ने एक ज छे.
सत् द्रव्यनुं लक्षण छे: असत् के अभाव नामे कोई स्वतंत्र पदार्थ नथी पण जे पोताथी सत् छे ते ज
बीजी द्रष्टिथी जोतां परथी असत् छे. दरेक द्रव्य–गुण–पर्याय सदाय परद्रव्य–परद्रव्यना गुण अने परद्रव्यनी
पर्यायनी सत्ताथी नास्तिरूप (अभावरूप) जोवामां आवे छे. आम होवाथी न तो केवळ कोई वस्तु सत् छे
के न तो कोई वस्तु केवळ असत् छे.
जो वस्तु आ मर्यादानुं उल्लंघन करे तो समस्त वस्तुना सर्वरूपनो नाश थई जाय, पण एम कदी
बनतुं नथी.
आ नियम एम बतावे छे के कोई वस्तु परवस्तुना कोईपण कार्यने कोई रीते करी शके नहि, जो एम
न मानवामां आवे तो त्रणे काळे प्रत्येक वस्तु स्वरूपनी अपेक्षाथी ज सत् छे अने पररूपनी अपेक्षाथी ज
असत् (–परपणे नास्तिरूप, परथी नहि होवारूप) छे ए अनेकान्त सिद्धांत तूटी पडशे.
आ उपरथी सिद्ध थयुं के परद्रव्य तेनो कोई पण गुण के पर्याय ते परद्रव्यनुं कांई पण कार्य करी शके नहि.
छतां निमित्त के जे परद्रव्य छे तेने तेनाथी जुदा परद्रव्यनी पर्यायनो कर्ता अथवा निमित्त कर्त्ता
कहेवामां आवे छे तेनुं कारण शुं छे तेनो खुलासो भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवे श्री समयसार गा. १०प मां
कर्यो छे. ते गाथा तथा तेनी टीका नीचे मुजब छे.
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदुण परिणामं।
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयार मत्तेण।। १०५।।
जीव हेतुभूत थतां अरे! परिणाम देखी बंधनुं उपचारमात्र कथाय के आ कर्म आत्माए कर्युं. १०प.
अर्थ:– जीव निमित्तभूत बनतां, कर्मबंधनुं परिणाम थतुं देखीने, ‘जीवे कर्म कर्युं एम उपचार मात्रथी
कहेवाय छे.’
“टीका–आ लोकमां खरेखर आत्मा स्वभावथी पौद्गलिक कर्मने निमित्तभूत नहि होवा छतां पण,
अनादि अज्ञानने लीधे पौद्गलिक कर्मने निमित्तरूप थता एवा अज्ञानभावे परिणमतो होवाथी निमित्तभूत
थतां, पौद्गलिककर्म उत्पन्न थाय छे, तेथी ‘पौद्गलिककर्म आत्माए कर्युं एवो निर्विकल्प विज्ञानघन स्वभावथी
भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानीओनो विकल्प छे, ते विकल्प उपचार ज परमार्थ नथी.”
आ गाथा स्पष्टपणे नीचेना नियमो सिद्ध करे छे:–
१ जीवने पुद्गल कर्मनो कर्ता कहेवो ते उपचार मात्र छे.
२ आ उपचारनुं कारण ए छे के ज्यारे ज्यारे कर्मबंध थाय छे त्यारे त्यारे ए अज्ञानी जीव
निमित्तभूत बने छे.