Atmadharma magazine - Ank 227
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म : २२७ : १७ :
३. उपचारमात्र कहो के व्यवहारमात्र कहो–बन्ने एक ज छे.
४. व्यवहारनय स्वद्रव्य–परद्रव्यना कारण–कार्यने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे. माटे एवा
ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे, जेथी तेनो त्याग करवो.
प. वळी निश्चयनय तेने ज (वस्तुस्वरूपने) यथावत् निरूपण करे छे तथा कोईने कोईमां मेळवतो
नथी तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे, माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.
आ गाथा अने तेनी टीका शान्तभावे ध्यानमां लेवामां आवे तो निमित्तकर्तापणुं मात्र उपचार ज छे
एम अनंतज्ञानीओ कहे छे एवुं नक्की थाय छे. स० सार गा० १०६ मां ए उपचार कई रीते छे ते
द्रष्टांतद्वारा कहे छे:–
जोधेहिं कदे जुद्धे रायेण कदंति जंपदे लोगो।
ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण।। १०६।।
योद्धा करे ज्यां युद्ध त्यां ए नृप कर्युं लोको कहे,
एम ज कर्यां व्यवहारथी ज्ञानावरण आदि जीवे. १०६
अर्थ:– योद्धाओ वडे युद्ध करवामां आवतां ‘राजाए युद्ध कर्युं,’ एम लोक (व्यवहारथी) कहे छे तेवी
रीते ‘ज्ञानावरणादि’ कर्म जीवे कर्यु’ एम व्यवहारथी कहेवाय छे.
टीका–जेम युद्ध परिणामे पोते परिणमता एवा योद्धाओ वडे युद्ध करवामां आवता, युद्ध परिणामे
पोते नहि परिणमता एवा राजाने ‘राजाए युद्ध कर्युं’ एवो जे उपचार करवामां आवे छे ते परमार्थ नथी,
तेम ज्ञानावरणादि–कर्म परिणामे पोते परिणमता एवा पुद्गलद्रव्य वडे ज्ञानावरणादि कर्म करवामां आवतां,
ज्ञानावरणादि कर्म परिणमे पोते नहि, परिणमता एवा आत्माने ‘आत्माए ज्ञानावरणादि कर्म कर्युं, एवो
जे उपचार करवामां आवे छे ते परमार्थ नथी.
आ गाथामां भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवे ‘उपचार’ ने ‘व्यवहार’ कह्यो छे, अने भगवान
अमृतचंद्राचार्ये ‘ते उपचार छे अने परमार्थ नथी एम द्रष्टांत अने सिद्धांत बन्नेमां कह्युं छे. त्यार पछी
गाथा १०७मां उपरनां कारणोथी शुंं नक्की थयुं ते नीचेना शब्दोमां कहे छे.
उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणाम एदि गिण्हदिय।
आदा पुग्गल दव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं।।
१०७।।
अर्थ:– आत्मा पुद्गल द्रव्यने उपजावे छे, करे छे, बांधे छे, परिणमावे छे अने ग्रहण करे छे–ए
व्यवहारनयनुं कथन छे.
टीका–आ आत्मा खरेखर, व्याप्य व्यापक भावना अभावने लीधे, प्राप्य, विकार्य अने निर्वत्य–एवा
पुद्गल द्रव्यात्मक (पुद्गल द्रव्यस्वरूप) कर्मने ग्रहतो नथी, परिणमावतो नथी, उपजावतो नथी, करतो नथी,
बांधतो नथी, अने व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवा छतां पण, “प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य–एवा
पुद्गल द्रव्यात्मक कर्मने आत्मा ग्रहे छे, परिणमावे छे, उपजावे छे, करे छे अथवा बांधे छे” एवा जे विकल्प
ते खरेखर उपचार छे.
भावार्थ:– व्याप्य व्यापकभाव विना कर्ताकर्मपणुं कहेवुं ते उपचार छे; माटे आत्मा पुद्गल द्रव्यने ग्रहे
छे, परिणमावे छे, उपजावे छे ईत्यादि कहेवुं ते उपचार छे.
आ गाथामां पण निमित्तकर्तापणुं व्यवहारकर्त्तापणुं छे एम कह्युं छे, अने ते ‘खरेखर उपचार छे’
एम श्री अमृतचं़द्राचार्ये कह्युं छे.
आ विषयने वधारे स्पष्ट करवा माटे आ उपचार कई रीते छे ते द्रष्टांत आपीने गाथा १०८ कही छे
जे नीचे मुजब छे:–
यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपितः।
तथा जीवो व्यवहाराद् द्रव्यगुणोत्पादको भणितः।। १०८।।
अर्थ:– जेम राजाने प्रजाना दोष अने गुणनो उत्पन्न करनार व्यवहारथी कह्यो छे, तेम जीवने पुद्गल
द्रव्यना द्रव्य–गुणनो (पर्यायनो) उत्पन्न करनार व्यवहारथी कह्यो छे. १०८