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निर्ग्रंथनो पंथ भव
अंतनो उपाय छे
त्रिकाळ निर्विकार ज्ञाता स्वरूपना अवलंबन वडे क्षणिक विकारथी
पोताने भेदज्ञान थई शके छे. भवनुं कारण विकार छे. नित्य एकरूप सामान्य
स्वभावमां विकार नथी माटे उपादेयरूप निज अखंड स्वरूपनी निर्विकल्प
श्रद्धा करवाथी समस्त संसारनी रुचि छूटी जाय छे. बेहदज्ञायक स्वभाव उपर
एकत्वनी द्रष्टिथी जाग्यो ते अल्पकाळमां विकार टाळी मोक्ष लेशे.
ज्ञानी चिंतवे छे के हुं परिपूर्ण ज्ञायक स्वभावी आत्मानो सदा आदर
करनारो छुं, स्वप्नामां पण असत् (तत्त्वथी विरुद्ध) भावनो आदर करनारो
नथी. सर्व विभावथी जुदो जे त्रिकाळ निर्मळ स्वभाव ते ज हुं छुं, एवी
निःशंक रुचि साधक जीवने निरन्तर वर्ते छे. तेने विकल्पनुं व्यवहारनुं जराय
आलंबन नथी. द्रष्टि बधा भेद (व्यवहार) उपरथी उठावीने एकरूप पूर्ण
स्वभावमां स्थापी, पछी भवनां कारणोमां–क्षणिक विकारमां उत्साह रहेतो
नथी.
शुद्धिनुं कारण अखंड स्ववस्तुनो आश्रय छे. स्वाश्रयना जोरे विकल्प
तूटे छे.
स्वरूपमां उग्र अवलंबन रूप एकाग्रताना बळथी चारित्र प्रगटे छे.
मुनिने वारंवार छठुं सातमुं गुणस्थान आवे छे. महाव्रतादिना विकल्प आवे
छे तेमां तेओ मोक्षमार्गरूप धर्म मानता नथी. मुनिदशामां के ते पहेलां
शुभराग आवे छे ते आत्माने हितकर छे, मददगार छे एम तेओ मानता
नथी. पण निज कारण परमात्मामां निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान–लीनता रूपे,
एकाकारपणे, निर्विकल्प आनंद रसने मोक्षमार्ग माने छे ने तेमां वर्ते छे एवा
निर्ग्रंथनो पंथ भव अंतनो उपाय छे.
यथार्थ द्रष्टि अने विपरीत द्रष्टिनो आधार तथा तेनुं फळ
यथार्थ द्रष्टिनो आधार आत्मा छे तेनुं फळ शुद्ध सिद्ध दशा छे;
विपरीतद्रष्टिनो आधार अज्ञानभाव छे अने तेनुं फळ संसारमां एकेन्द्रिय
दशा छे. आ संसाररूपी रथने मिथ्यात्वरूपी धुरी छे अने पुण्य–पापरूपी बे
चक्र छे.
(पू. गुरुदेव)