: ४ : आत्मधर्म : २२७
शाश्वत अकषाय स्वरूपनी द्रष्टिना
बळथी सम्यग्द्रष्टिने वीरता, धीरता
अने सातभय रहितपणु
समयसार निर्जरा अधिकार गा. २२८ उपर
पू. गुरुदेवनां प्रवचनो सोनगढ ता. १७–४–६२
भगवान श्री महावीरप्रभुनो जन्म कल्याणक महोत्सव ईन्द्रादि देवो द्वारा आजे उजवायेलो. तेनुं
स्मरण करी तेमणे जे सुखनो उपाय कर्यो ने बताव्यो तेने आपणे अनुसरीए ते ज महोत्सव गणाय. शुद्ध
ज्ञानघन आत्मामां निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रतारूप सघळा पुरुषार्थनी शरूआत चोथा गुणस्थानथी थाय छे.
सम्यग्द्रष्टिने सुख स्वभावी ज्ञानचेतनानुं स्वामीत्व अने अनुभव होवाथी सात प्रकारना भय होता
नथी.
सम्यग्द्रष्टिने अविनाशी चैतन्यधु्रवस्वभावनी द्रष्टि होवाथी तेने कोईपण प्रकारनो भय होतो नथी.
नित्य निर्भय बेहद अकषाय स्वरूप हुं छुं एम अविनाशीना आलंबनना बळथी तेने निर्जरा एटले अंशे
शुद्धिनी वृद्धि, अशुद्धिनी हानि अने द्रव्यकर्मनुं विशेष प्रकारे झरवुं–छुटवुं थाय छे.
दरेक सम्यग्द्रष्टि सदाय सर्व कर्म अर्थात् शुभाशुभ रागनी क्रिया अने तेना फळ प्रत्ये निरभिलाषपणे
अने अत्यंत निरपेक्षपणे वर्ते छे. तेथी खरेखर तेओ अत्यंत निःशंक द्रढ निश्चयवंत अने अत्यंत निर्भय छे.
श्रद्धामां निर्भयता छे, चारित्रमां थोडी नबळाईना कारणे अमुक दशा सुधी भय होय ते गौण छे.
जगतना बधा पदार्थो अने असंख्य प्रकारना शुभाशुभ रागादि ते माराथी भिन्न छे, हुं तेनाथी पृथक्
छुं, सदाय ज्ञाता ज छुं एम असंग तत्त्वनुं भान, वर्तमान दशामां रागादि होवा छतां पण थई शके छे.
भगवान आत्मा असंग ज्ञाता छे. देह–मन–वचननी क्रिया मारी नथी, मारा आधारे नथी. हुं परनुं
कांई करी शकुं नहि, परपदार्थ मारूं कांईपण कार्य करी शके नहि, कोई परवडे मारूं हित–अहित थई शके
नहि,–एम स्वतंत्रता कबूलीने पराश्रयनी श्रद्धा छोडी, स्वानुभव द्वारा आत्मामां श्रद्धा–ज्ञान अने अंशे
शांति थतां निर्जरा थाय छे.
स्वसंवेदन थतां समये समये शुद्धि वधे छे ते अस्ति अने अंशे अशुद्धि टळे छे एटले के एटली
मलीनता उत्पन्न थती ज नथी ते नास्ति अपेक्षाए भावनिर्जरा छे अने अंशे जडकर्म–द्रव्यकर्मनुं खरवुं ते
द्रव्य निर्जरा छे.
संज्ञी तिर्यंच–पशु होय छे तेने नारकीने पण रागादि अने देहथी भिन्न, केवळ चैतन्यस्वरूप, पूर्णज्ञान
घनस्वभावी छुं एवुं भान थाय छे. शरीरमां कोईपण प्रकारनी स्थिति हो, अविनाशी आत्मस्वभावनो
भरोसो आव्यो तेने मरणादिनो भय होतो नथी. ज्ञानमां भय नथी अने भयमां ज्ञान नथी.
आचार्यदेव मरण भयनुं काव्य कहे छे.
प्राणोच्छेदमुदाहरंति मरणं प्राणाः किलस्यात्मनो।
ज्ञानं तत्स्वमेव शाश्वतया नोच्छिद्यते जातुचित्।।