भादरवा : २४८८ : प :
तस्यातो मरणं न किंचनभवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो।
निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।।
पांच ईन्द्रिय, मन, वचन, कायबळ, आयुष्य, श्वोसोश्वास ए दस प्राण कहेवाय छे. संज्ञी पंचेन्द्रियने
१० प्राणनो संयोग होय छे. ते प्राणोना वियोगने लोको मरण कहे छे पण ते आत्मानी चीज नथी. आ
आत्माना प्राण तो तेनाथी रहित अने अविनाशी सुख सत्ता, चैतन्य अने बोध (ज्ञान) छे. ते स्वत:
पोताथी ज टकी रहेला होवाथी तेनो कदापि नाश थतो नथी माटे आत्मानुं मरण बीलकुल थतुं नथी आवुं
जाणतो होवाथी सम्यग्द्रष्टिने मरणनो भय नथी. ते तो निःशंक, निडर वर्ततो थको पोताना ज्ञानस्वरूपने
निरन्तर अनुभवे छे.
संयोग अने राग होवा छतां तेने न स्पर्शतो नित्य ज्ञायक स्वभावनुं स्पर्शन–अनुभवन करनारो
होवाथी तेने निर्भयता होय छे. मिथ्याद्रष्टिने ते होती नथी. कदी बाह्यमां ते निर्भय देखाय छतां पराश्रयमां
निमित्ताधीनपणामां द्रष्टि होवाथी अंतरमां ते सदा भयभीत छे. पराधीनतानी द्रष्टिवाळो सदा बंधाय ज छे,
स्वाधीनतानी द्रष्टिवाळो छुटे छे अर्थात् निःशंक ज्ञानमां वर्ते छे.
आकस्मिक भयनुं काव्य नां. १६० अर्थ– आ स्वत: सिद्ध ज्ञान एक छे, पोताना अतीन्द्रिय ज्ञानमय
स्वभावथी एकमेक अभेद स्वरूप छे, अचळ छे, पोताथी छे, परथी अने परना आधारे नथी, सदा निश्चल
छे, तेथी तेमां बीजानो उदय नथी–प्रवेश नथी, माटे आ ज्ञानमां (आत्मामां) अणधार्युं एकाएक आडुंअवळुं
कांई पण थतुं नथी. आखुं जगत जे रीते वर्ती रह्युं छे, वर्ते छे अने वर्तशे तेमां कांई नवाई जेवुं अथवा
अकस्मात नथी. वस्तु अने तेनो स्वभाव सदा स्वतंत्र होवा छतां संयोगने ज जोनारा एम माने छे के
परपदार्थ–शरीरादिमां आडुं अवळुं थई शके, एटले के थवानुं होय ते अटकी जाय पण ए मान्यता खोटी छे.
वस्तु स्वत: सिद्ध पोताथी छे अने परथी नथी, वळी ते अनादिअनंत छे, अने तेनी शक्ति पण
अनादिअनंत पोताथी छे, तेथी ते तेनी योग्यतानुसार तेना क्रमे वर्ते छे.
वस्तु नित्य परिणामी छे के नहि? छे तो व्यवस्थित छे के अव्यवस्थित छे? वस्तुमां परिणमनना
प्रवाह एनी योग्यताना क्रम मुजब नियत छे तेने अक्रम अने आडो अवळो करी शकाय एवुं माननाराने
वस्तुनी स्वतंत्रतानी खबर नथी. कोई पदार्थनी अवस्थानुं अकस्मात पलटवुं थतुं ज नथी. वीजळी पडे, सर्प
करडे, हार्टफेईल थाय ए आदिमां कोई अणधार्युं–अकस्मात नथी. जेने तेनुं ज्ञान नथी ते परवडे एकाएक
अणधार्युं थयुं एम मानी भयभीत थाय छे.
वस्तुनी योग्यताअनुसार थती वर्तमान अवस्था ते तेनी व्यवस्था छे. तेमां कदी अकस्मात नथी ज
एम ज्ञानी जाणे छे तेथी ते जड अने चेतनमां कांई अणधार्युं थाय एम मानतो नथी पण तेनुं आ काळे
एम ज होय एम मानतो होवाथी भयभीत थतो नथी.
नीचली दशामां पुण्यपापना भाव ऊठे खरा पण तेना होवापणामां हुं नथी, अने मारा होवापणामां
ते नथी. ज्ञातास्वभावमां रागादि नथी. आवुं भान ज्ञानीने सदा होय ज छे.
भगवान आत्मा अनादिथी आज सुधीमां अनंत अनंतवार अनंत संयोगमां आव्यो छतां तेमां कदी
एकमेक थयो नथी.
राग अने संयोग बेउ संयोगी चीज छे, ते आत्माथी पृथक् स्वभावी–विरुद्ध स्वभावी छे तेथी तेनो
धु्रव चैतन्य स्वभावमां प्रवेश नथी.
पोतानामां तथा अन्य पदार्थमां कांई अणधार्युं थतुं नथी. भींत पडे, आग लागे, शरीर कपाई जाय
ए आदि अवस्था जेम थवा योग्य होय तेम ज थाय छे, तेमां कोई अकस्मात नथी. कोई द्रव्य कोई अन्यने
अडतुं नथी.
कोईमां अणधार्युं थाय, परने लीधे आडुंअवळुं थाय एवुं त्रण काळ त्रण लोकमां बनतुं ज नथी.
धर्म ए वस्तुनो स्वभाव छे. ते वर्तमान नवा पुरुषार्थथी थई शके छे. शुभाशुभ राग अने देहादि
संयोग ते हुं नथी, हुं तो नित्य ज्ञाता छुं एम प्रथम निर्विकल्प श्रद्धा वडे परथी छुटो पडी, अंतर ज्ञानानंदमां
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