Atmadharma magazine - Ank 228
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : २२८
प्रश्न:– अभूतार्थ दर्शितनय द्वारा कहेवामां आवतो व्यवहार धर्म खरेखर धर्म नथी तो पछी एक
भूतार्थदर्शी निश्चयनय द्वारा भूतार्थ (सत्यार्थ) निरूपण करवुं जोईए. अभूतार्थ (उपचार–व्यवहार)
निरूपण शा माटे करवामां आवे छे?
उत्तर:– जेने सिंहनुं यथार्थ स्वरूप सीधुं समजातुं न होय तेने सिंहना स्वरूपना उपचरित
निरूपण द्वारा अर्थात् बिलाडीना स्वरूपना निरूपण द्वारा सिंहना यथार्थ स्वरूपना ख्याल तरफ दोरी
जवामां आवे छे; तेम जेने वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप सीधुं समजातुं न होय तेने वस्तुस्वरूपना उपचार
कथन वडे वस्तुस्वरूपना यथार्थ ख्याल तरफ दोरी जवामां आवे छे. वळी लांबा कथनने बदले संक्षेपथी
कहेवा माटे पण व्यवहारनय द्वारा उपचरित अभूतार्थ कथन करवामां आवे छे. अहीं एटलुं लक्षमां
राखवुं के–जे पुरुष बिलाडीना निरूपणने सिंहनुं निरूपण मानी बिलाडीने ज सिंह समजी बेसे ते तो
उपदेशने ज लायक नथी, तेम जे पुरुष उपचरितने ज (व्यवहार धर्मने ज) सत्यार्थ निरूपण मानी
वस्तुस्वरूपने–मोक्षमार्गने–खोटी रीते समजी बेसे छे ते तो उपदेशने ज योग्य नथी.
अगाउ तेना व्यवहाराभासरूप श्रद्धा–ज्ञाननुं वर्णन थई गयुं छे. हवे ते चारित्र माटे क््यां
भूल्या छे ते कहे छे. निश्चय वीतरागभाव ते ज आत्मानुं यथार्थ चारित्र छे पण तेनुं निरूपण बे प्रकारे
छे. साधक दशामां बे नय होय छे. अंशे वीतरागता ते स्वाश्रयरूप निश्चय चारित्र छे अने साथे
शुभराग छे ते चारित्र तो नथी पण जेने स्वाश्रित वीतरागभाव छे तेने तेनुं निमित्तपणुं छे एम
बताववा व्यवहारथी शुभने पण चारित्र कहेवुं ते उपचार निरूपण छे. शुभ अथवा अशुभ रागनुं
चारित्र ते आत्मानुं चारित्र नथी, मोक्षमार्गनुं चारित्र नथी पण संसार मार्गनुं चारित्र छे.
हिंसाना त्याग माटे ते बाह्यमां हिंसा अहिंसा माने छे. स्वरूपमां असावधानी, प्रमाद परिणति
ते हिंसा छे, मिथ्यात्व छे ते ज मूळ हिंसा छे तेनी तेने खबर नथी.
एकेन्द्रिय आदि प्राणीनी हिंसा न करवी, दया पाळवी, जूठ न बोलवुं, पांच पापथी निवृत्ति अने
शुभमां प्रवृत्ति एमां सर्वविरतिरूप भाव ते रागनो भाव छे. तेने व्यवहार अहिंसा क््यारे कहेवाय के
निश्चय वीतरागभावरूप चारित्रदशा होय तो. व्यवहार अहिंसा ते पुण्य परिणाम छे, शुभराग छे, धर्म
नथी. मोह–क्षोभ रहित आत्मपरिणाम ते धर्म छे. शुभरागमां धर्म नथी, ते आत्मपरिणामरूप चारित्र
नथी छतां तेमां चारित्र धर्म मानी पोतानी मिथ्याद्रष्टिवडे ते जीव शुभरागनी प्रवृत्तिमां तन्मय रहे छे.
बाह्य हिंसानो त्याग अने अहिंसारूप शुभरागनुं ग्रहण ते राग छे, आस्रव छे, आस्रव ते
बंधननुं कारण छे, मोक्षनुं कारण नथी. (ए शुभराग ज्ञानीने पण होय छे पण तेने ते खरेखर धर्म
मानतो नथी.) जूठुं न बोलवुं, साचुं बोलवुं, अचौर्य पाळवुं, अब्रह्म न सेववुं, ब्रह्यचर्य मन, वचन,
कायाए पाळवुं, धन, धान्य, वस्त्रादि परिग्रहनो त्याग ए बधी शुभरागनी वृत्ति छे, तेनाथी पुण्य छे,
चारित्र नथी केमके रागभाव ते निर्विकार चैतन्यनी जागृतिनो सो टका विरोधी भाव छे, झेर छे. ज्ञानी
छठ्ठा गुणस्थानवर्ती मुनिना महाव्रतादिना शुभ भाव पण निश्चयथी विषकुंभ ज छे. जेम छे एम
जाणवुं ते सम्यग्ज्ञान छे केमके जे भावे नवुं बंधन थाय ते भावे वीतरागी श्रद्धा अथवा चारित्र धर्म
थई शके नहीं छतां कोई भ्रमथी अभूतार्थ धर्मने साधतो थको पोताने भूतार्थ धर्म माने, मोक्षमार्ग
माने छे. ते मान्यता मिथ्यात्वरूपी महापाप छे. हिंसादि पांच पाप तथा सात व्यसनना महापापनी
तुलनामां मिथ्यात्वनुं पाप अनंतगणुं छे एम शास्त्रमां कह्युं छे.
अहीं शुभ भाव छोडी पापमां जवानुं कहेल नथी पण पुण्य–पापनी मर्यादा बतावी छे तेने
खरेखर