: १४ : आत्मधर्म : २२८
एटले परमार्थे भलुं छे–आत्माने हितकर छे एम ज्ञानी मानता नथी.
(१) उपवास अतीन्द्रिय ज्ञानमय आत्मामां वसवुं ते उपवास छे. पण अज्ञानीने निश्चय–व्यवहार
होता ज नथी.
(२) अवमौदर्य तपमां चार रोटली खाय तो पाप अने बे रोटली खाय तो धर्म थयो एम नथी.
आत्मा तो ज्ञान छे, रोटलीने लई शकतो नथी, छोडी शकतो नथी, मात्र एवो राग करी शके छे, रागने धर्म
मानी मिथ्यात्वरूपी मोटुं पाप करी रह्यो छे तेनी तेने खबर नथी. अज्ञान ते बचाव नथी.
प्रश्न:– व्यवहारथी तो परनुं कार्य आत्माथी थाय छे ने?
उत्तर:– ज्ञानी के अज्ञानी व्यवहारथी पण परनुं कार्य करी शकतो नथी. शरीरनी क्रिया करी शकतो
नथी, मात्र अभिमान करे छे. ज्ञानीने नित्य ज्ञायक छुं एम भानमां जेटला अंशे स्वरूपमां एकाग्रता छे ते
निश्चय अवमौदर्य तप छे अने ते ज जीवने ते काळे शुभ राग पण छे ते व्यवहार तप छे. तेनी अज्ञानीने
खबर नथी.
(३) वृत्ति परिसंख्यान–१–अकषाय ज्ञातास्वरूपमां विशेष आलंबनद्वारा अंशे शुद्धिनी वृद्धि थवी ते
निश्चय तप अने–२–भिक्षा माटे जती वखते अमुक प्रकारे आवी विधि मळे तो ज आहार लेवो एवी
प्रतिज्ञाओ तेमां होय छे ते शुभराग पण हेय छे एम जाणी तेने उपचारतप कहेवो ते व्यवहारवृत्ति
परिसंख्यान.
(४) रस परित्याग–छ रसोमांथी छ अथवा अमुक रसवाळो खोराक न लेवो एवो राग
ज्ञानीने पण आवे छतां ते आत्मानुं चारित्र अर्थात् धर्म छे एम ज्ञानी मानता नथी, अज्ञानी तेमां
धर्म माने छे.
(प) कायकलेश–द्रढ आसनथी कायाने स्थिर राखवानो भाव ते शुभ राग छे, अज्ञानीने शरीर
प्रत्ये रागनी मंदता थाय पण ते शुभभाव छे, धर्म नथी.
(६) विविक्त शय्यासन–एकान्त वासमां रहेवुं, स्त्री, नपुंसक पशु ज्यां होय त्यां न रहेवुं एवो
शुभ भाव ते पुण्य छे, धर्म नथी.
अहीं अज्ञानीना बार प्रकारे तपरूप शुभरागनी वात चाले छे. मुनिलिंग धारीने बार प्रकारनी
रागनी वासनामां ते निरन्तर सावधान रहे छे. आत्महितमां जराय सावधान नथी.
आत्माए पर वस्तुने पकडी नथी के छोडे, पण तेणे अज्ञान भावमां–रागमां कर्तापणानी वासनाने,
मिथ्यात्व भावने पकडयो छे–के आ मारूं छे, में आने छोडयुं छे–एम रागमां अने पर वस्तुमां कर्तापणानी
वासना छे ते ज अनंत संसारनुं मूळ कारण छे.
महावीर भगवाने पण तप करेल छे–१२ाा वर्ष सुधी तप कर्यां, सुखे करीने सूता नहीं, सुखे करीने
खाधुं पीधुं नहीं. वेळुना कोळिया जेवुं कठण चारित्र पाळ्युं, त्यारे तेमने केवळज्ञान थयुं, एम अज्ञानी माने
छे अने मोक्षमार्गने कष्टदाता–दुःख देनार बतावे छे. पण एम नथी–भगवाने एवा तप कर्या ज नथी. पण
बेहद ज्ञानानंद स्वभावी आत्मामां एकाकार रहेवाना अभ्यासमां, आहार लेवानी वृत्ति उत्पन्न थई नहीं,
अने तेना स्थानमां अतीन्द्रिय आनंद रसनी रेलमछेल थती हती. आम आत्माना आनंदमां वर्तता हता,
तेनुं नाम तप छे.
अज्ञानी तेना मानेला पोषध सहित घणा उपवास करे छतां देहनी क्रिया अने आहार में छोडयो,
एवा रागनी उपर द्रष्टि छे तेथी तेना उपवास लांघण ज छे. व्यवहार धर्म पण नथी.
ज्ञानीने आत्मामां एकाग्र रहेवानो अखतरो करतां अतीन्द्रिय आनंदनो एवो स्वाद आवे के आखुं
जगत लूखुं लागे, अने अंदरमां अपूर्व ज्ञानानंदनी शान्ति अने तेमां लीनता जामे तेनुं नाम उपवास छे.
साथे अल्प राग रह्यो तेने उपचारथी, व्यवहारथी उपवास कहेवाय छे, देहनी क्रियामां धर्म, अधर्म के
उपवास नथी.
कोई कहे देहनी क्रिया गमे तेम पापमां वर्ते तेनी साथे आत्माने संबंध नथी, एम स्वच्छंदनी वातो करे