: १६ : आत्मधर्म : २२८
जो शरीरथी धर्म थतो होय तो तेमां रोग आवे, लकवा थई जाय त्यारे आत्मा धर्म रहित थई
जाय, पण शरीरने सरखुं राखवुं आत्माना अधिकारमां नथी. एक बाईने लकवा छे, नाभी नीचेथी
बधुं अंग शून्य थई गयु छे. घणी प्रेरणा करे, चालवानी योग्यता नथी तेथी चालतुं नथी पण त्यां
रहेला बाईना आत्माने धर्मनो घणो प्रेम छे, जागृति घणी छे, तेमां शरीर आडुं आवतुं नथी. कह्युं के
आत्मा ज्ञानानंद छे, साक्षीपणे नित्य जाणनार स्वरूपे छे एम स्मरण करजे. जवाबमां खुब प्रसन्नता
बतावी. पण जेने तत्त्वज्ञान प्रत्ये विरोध छे ते तो शरीरमां मारो अधिकार छे, हुं परनुं कांई करी शकुं
छुं, पुण्यथी धर्म थाय एम मान्या ज करे छे ए मान्यता मोटी पापद्रष्टि छे, केमके एम माननार हुं
चैतन्य छुं, ज्ञाता ज छुं, देहादिरूपे नथी, अने परनो कर्ता–भोक्ता स्वामी नथी एम सत्यने मानतो ज
नथी. पण ज्ञाता स्वभावनो तिरस्काररूप कलेश करे छे.
देहना कार्य स्वतंत्र छे, तारे आधीन नथी, तुं तो पुण्यपापना भाव करी शके, अज्ञान अथवा
ज्ञान करी शके. दया, दान, व्रत, तपना भाव ते पुण्य छे, धर्म नथी. धर्म तो अधर्मथी रहित आत्मानो
निर्मळ स्वभाव छे. आ वात देहमां अने रागमां एकता बुद्धिवाळाने कठण पडे.
आत्मा परनुं करवा समर्थ नथी. रोग टाणे तो देहनी क्रिया न करी शके पण निरोगी टाणे करी
शके के नहीं? ना, परमां कर्तापणुं तो परमां एकता बुद्धिथी संयोग तरफथी जोनारो माने छे. पण
ईच्छा वडे के ज्ञान वडे कोई प्रकारे परनुं कांई करी शकातुं नथी.
अज्ञानभावे स्व परना वस्तुस्वभावने भूलीने, मात्र पोतानी अंदर, पोताना भावमां अज्ञान
भाव करे, कांतो ज्ञानभाव करे. परनी क्रिया (परनी अवस्थानुं उत्पाद व्ययरूप कार्य) कोईपण करी
शके नहीं, करावी शके नहीं, मोहथी माने भले.
कोण कूणो जीवो सेवाभावी होय तो तेने बीजा माखण चोपडे (भलुं मनावे–खुशामत करे) के
अहो! तमे बहु उपकार करो छो, बीजानुं भलुं कर्युं तो ते वात ज्ञानी माने नहीं, केमके कोई जीवपरनुं
भलुं भुडुं करवा समर्थ नथी. दरेक भिन्न तत्त्व छे, तेनी शक्तिथी परिपूर्ण भरेला छे. कोईनी सहाय
मळे तो टके एवा पराधीन कोई नथी.
ज्ञानी बीजाने संयोगना लीधे दुःखी सुखी माने नहीं, पण तेना अज्ञान ज्ञानना कारणे ते
दुःखीसुखी थाय छे एम माने छे. ज्ञानीने बीजानी सेवा करवानो शुभ भाव आवे, पण हुं परनुं कांई
करी शकुं छुं एम माने नहीं.
वर्तमान संयोग मात्रने देखनारा सुधारावादीने आ वात न बेसे पण वस्तु अनादि अनंत छे,
छे तो तेमां तेनी सर्व शक्ति (गुण) पण अनादि अनंत छे. दरेक द्रव्य पोतापणे छे अने परपणे नथी
माटे पोतापणे टकीने नवी नवी अवस्थापणे बदले छे. बे तत्त्वो सदाय जुदा छे, एवी दरेक द्रव्यनी
स्वतंत्र मर्यादा जाणे तो पोते देहथी जुदो स्वतंत्र सत् पदार्थ छे, अने शरीरादि भिन्न तत्त्वो पण
स्वतंत्र सत्परमाणुं नामे पदार्थ छे ते पण तेनाथी टकीने बदले छे एम जाणे तो सत्यनो विचार
आवे के अहो! दरेक द्रव्य परथी भिन्न छे ने पोतपोतानी शक्तिथी परिपूर्ण पोतापणे वर्ते छे, तो ते
कोई बीजानुं शुं करे!
लौकिकमां व्यवहारथी कर्तापणानुं कथन आवे, पण ते कहेवामात्र छे. परनुं करी शकातुं नथी
एम धर्म जीज्ञासुए प्रथमथी ज निर्णय करवो जोईए.
कार्योत्सर्ग नामे पदनो भेद छे. कायाने एक स्थाने रोकी राखवी ते कार्योत्सर्ग नथी. हुं काया
रोकी शकतो ज नथी. देह अने समस्त रागथी जुदो त्रिकाळ ज्ञायक छुं एम भेदज्ञान करी एकाग्र थाउं,
एवा विकल्पथी छूटी, अतीन्द्रिय आनंदमां एकाग्र थतां देहनी ममतानो