आसो : २४८८ : १७ :
त्याग थई जाय तेनुं नाम कार्योत्सर्ग छे. पण ते संबंधी राग आवे, विकल्पो ऊठे ते धर्म नथी, छतां तेने पण
कार्योत्सर्ग कहेवो ते असद्भूत उपचरित व्यवहारनयनुं कथन छे.
स्वाध्याय वांचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय अने धर्मकथानो भाव ते पुण्य छे, धर्म नथी. धर्म तो
अतीन्द्रियज्ञानमां जेटली लीनता थाय, स्वसन्मुख जागृतिद्वारा शान्ति थाय ते धर्म छे, स्वाध्याय छे.
संयोगद्रष्टि अने अतीन्द्रिय ज्ञानमय स्वभावद्रष्टिमां महान अंतर छे.
आनंद पूछे परमानंदने, माणसे माणसे फेर;
एक नाणा नाख्ये न मळे, एक तांबियाना तेर!
ध्यान–निर्विकल्प भेदज्ञान ते स्वद्रव्यना आश्रयरूप ध्यान छे, ते विना मनमां एकाग्रता करे, हुं ध्यान
करुं छुं, हुं आवो छुं एवा विकल्पमां आत्मानुं ध्यान माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. साधारण बुद्धिवानने
तत्त्वज्ञानमां रस न आवे, पोतानी मेळे विचार आगळ चाले नहीं, प्रमादमां ध्यान माने छे एम अनादिथी
अज्ञानीनुं ध्यान अज्ञान चेतनामां होय छे. आत्मानुं ध्यान निश्चय सम्यग्दर्शन विना होई शके नहीं.
अपूर्व आत्मजागृति सहित संल्लेखना
सत्=सम्यक् प्रकारे, लेखना=मिथ्या मान्यताना त्यागपूर्वक कषायने कृश (क्षीण) अने
आत्माने बळवान करवाने संल्लेखना कहे छे.
ज्ञानी जीव शरीरमां स्वाभाविक दशाथी विकृत दशा, वृद्धत्व, अंधत्व, असाध्य रोग तथा
शुभाशुभ निमित्तज्ञाननी शक्तिथी पोताना (शरीरना) मरणकाळनो ज्यारे निश्चय करी ले छे त्यारे
ज ते धर्मी जीव संन्यास–समाधिमरणनी विधि अंगीकार करे छे अने आ सम्यक् समाधिदशामां विशेष
प्रकारे रागद्वेष मोहादिकनो स्वावलंबनना बळथी अभाव करवामां आवतो होवाथी आत्मघातनो दोष
लागी शकतो नथी.
जेम कोई मोटो व्यापारी घरमां आग लागवाथी, प्रथम तो ते बुजाववानो प्रयत्न करे छे पण
ज्यारे तेनुं बुजावुं अशक््य समजी ले छे त्यारे मूल्यवान मुख्य वस्तु लईने तेनो त्याग करे छे. तेम
शरीरमां व्याधि उत्पन्न थाय, औषधीथी पण रोग मटे तेम नथी अथवा कोई उपसर्ग वा वृद्धत्वादि
कारणे संयम निर्वाह अशक््य थई पडे त्यारे जेम पोतानो आत्मिक धर्म न बगडे ए रीते स्वरूप लक्षे
ज्ञानवैराग्य, शक्तिरूप धर्मनी रक्षा अर्थे संन्यास (समाधिमरणनी विधि) धारण करे छे–ते कांई
आत्मघात नथी.
मुनि सम्यक्रत्नत्रयनी आराधनामां ज तत्पर होय छे. पोताने समाधिमरणनो निश्चय थया
पछी एकान्त जंगलमां, डुंगरा–गुफा आदि एकान्त स्थानमां पण जाय, द्रढता एवी छे के कदाच
शीथिलता थाय तो अतिचार जेटलो ज दोष आवे पण समाधिमरण न फरे–शरीर अने पांच ईन्द्रियो
तथा मन शीथिल थाय छतां अंदर निजजाग्रत चैतन्य स्वभावनुं निरालंबी शरण चालु करे छे.
भगवती आराधनामां कथन छे के साधकमुनि–समाधिमरण माटे प्रार्थना करी आज्ञा लेवा माटे
४७ आचार्य पासे जाय–तेनो अर्थ ए छे के अफर आराधनाना निर्वाह माटे उपड्यो छे. तेमां ४७
आचार्य–संतने पुछवा जवानी द्रढता. निर्मानता अने लायकात केटली छे तेनुं माप छे, त्यां विशेष
अनुभवी आचार्यने पुछे छे के आपनी शुं सलाह छे. आज्ञा..आपो. आम ४७ आचार्यो पासे जवानी
भावनाथी उपड्यो, वच्चे आयु पूर्ण थई जाय तो पण समाधिनो आराधक ज छे. आचार्य पासे जाय
तो तेना अफर निश्चयनी द्रढता जोईने तेने उत्साहित करे छे, धन्यवाद आपे छे. जुओ, आज्ञा छे.
व्यवहारमां वांधो (–बाधा) नहीं आवे, निश्चय तो तमारे छे ज.
आ रीते सम्यक्प्रकारे कषायने क्षीण करवाना व्यापारमां प्रवर्तवावाळाने समाधिमरण नो विधि
आत्मघात् नथी पण अंतिम आराधना छे.