आसो : २४८८ : प :
अरे! आत्मा तारी तो अगाधगति छे. दया, दानादिरूप पुण्यभावथी मोक्षमार्गरूप धर्म माने–मनावे
तेओ आत्मधर्मने लूंटनारा छे. धर्मी जीवने नीचली दशामां पुण्य–पापना भाव आवे खरा पण ते रागनी
क्रियाने धर्म न माने. धन कमावानो भाव पाप छे, पैसा मळे छे ते डहापणथी मळता नथी, पण पूर्वनां
पुण्यरूपनी लोन हती ते बळीने वर्तमान सामग्री देखाय छे, तेमां राजी थईने पाप बांधे छे.
अनंत काळ वीत्यो, एक क्षण पण आत्महित जाण्युं नथी. शरीरनी क्रिया हुं करी शकुं छुं एम मान्युं
होय छे, पण मरती वेळा बोलवानी ईच्छा होवा छतां बोलाय नहि, केमके ईच्छाने आधीन वाणी नथी,
स्वतंत्र भाषावर्गणाथी वाणी ऊपजे छे. में कुंटुंबनुं कर्युं, धंधो कर्यो, नात जातनुं कर्युं, में पांच लाख भेगा
कर्या, एम माननार मिथ्या अभिमानी छे. कह्युं छे के–
“हुन्नर करो हजार, भाग्य विन मळे न कौडी”
समय आव्या पहेलां धन मळतुं नथी तथा किस्मतथी अधिक मळतुं नथी. संयोग एना काळे आवे ने
जाय. जीवने खरेखर धन मळ्युं नथी, पण ममतावानने ममता मळे छे. भेदज्ञानपूर्वक स्वसन्मुख
ज्ञातापणानी धीरज राखनारने स्थायी समता मळे छे. ज्ञानी पुण्य–पाप अने तेना फळनो कर्ता–भोकता के
स्वामी थतो ज नथी. अज्ञानी ने पूर्वेनां पुण्यथी वर्तमान सोगठी गोठवाई जाय, त्यां मोहथी माने के मारा
पुरुषार्थथी में आ बधुं मेळव्युं छे पण ते भ्रम छे. अज्ञानीने संयोग उपर ज द्रष्टि छे तेथी विषय विकारनी
जाति साथे मोक्षसुखनी सरखामणी करे छे अने कहे छे के मोक्षनुं सुख स्वर्गादिना ईन्द्रोना सुखथी अनंतगणुं
छे, तेने अनुपम मोक्षसुखनी खबर नथी.
श्रीमद् राजचंद्रनो जन्म विक्रम संवत् १९२४ मां थयो हतो, १९३१ नी सालमां ७ वर्षनी वये
पूर्वभवनुं जातिस्मरण ज्ञान थयुं हतुं, १६ वर्षनी उंमरमां मोक्षमाळा नामे पुस्तक बनाव्युं, तेमां १०८ पाठ
लख्या छे, तेमां एक काव्य छे के–
“बहु पुण्य केरा पुंजथी,
शुभदेह मानवनो मळ्यो
तोये अरे! भवचक्रनो,
आंटो नहीं एके टळ्यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे,
लेश ए लक्षे लहो,
क्षणक्षण भयंकर भाव मरणे,
कां अहो! राची रहो”
जे जीव पुण्य–पापने करवा जेवा माने छे, शुभरागथी आत्मकल्याणरूप धर्म माने छे ते निर्विकार
ज्ञातास्वभावनो पूरेपूरो तिरस्कार करे छे अने पोते ज अज्ञानवशे पोतानो शत्रु थाय छे.
“जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःख अनंत,
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत.”
आत्मसिद्धि दोहामां प्रथमथी ज पूर्णताना लक्षे साधकभाव उपाडयो छे. पोते असली स्वरूप समज्यो.
सुखनो उपाय अंदरमां छे एम समज्यो त्यारे जाण्युं के अहो! आवुं मारुं परमपद स्वाधीन छे, अने तेने
भूल्यो तेथी ज अनंतकाळ परिभ्रमण कर्युं छे, एक सेकन्ड मात्र पण धर्म कर्यो नथी.
जेम पर्वतमां विजळी पडे ने टुकडा थाय ते रेणे भेगा न थाय–तेम भगवान आत्मा पुण्यपाप अने
समस्त प्रकारना रागथी पार, बेहद ज्ञानस्वभावथी परिपूर्ण छे ए निर्विकल्प प्रतीति थतां संसारमां लांबो
काळ परिभ्रमण करवुं पडे नहि.
‘यम नियम संयम आप कि््यो,
पुनि त्याग विराग अथाग लियो,
जप भेद जपे तप त्योंही तपै,
उरसेंही उदासी लही सबपै;
वह साधन वार अनंत कि््यो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यों;
अब कयों न बिचारत हैंं मनसें,
कछु और रहा उन साधनसें.”