: ६ : आत्मधर्म : २२८
अरे आत्मा! तुं कोण छो, केवा स्वरूपे छो, तारा अधिकारमां शुं छे, शुं थई रह्युं छे ने शुं मानी रह्यो
छे! तें एक पण वातनो सत्य निर्धार कर्यो ज नथी. अज्ञानी गुरुओए बाह्यमां तथा व्रतादि पुण्यबंधननी
क्रियामां धर्म मनाव्यो छे. जगत्ने जन्ममरणरहित नित्यज्ञानघन आत्मा शुं छे तेनी खबर नथी–तेथी तेनुं
सत्य चारित्र शुं छे तेनी खबर पडे क््यांथी? क्षणिक विभाव अने त्रिकाळी एकरूप चैतन्य स्वभाव वच्चे
भेद विज्ञान करी अंतरमां ढळीने अतीन्द्रिय आनंदामृतमां लीनता करवी ते आत्मानुं चारित्र छे. वच्चे
नीचली दशामां शुभराग आवे ते आस्रव तत्त्व छे, ते आत्मानुं संवर–निर्जरारूप चारित्र नथी. आ वात न
समज्यो तेथी दुःखना उपायने ज सुखनो उपाय मानी दुःखना कारणोमां ज प्रवर्ते छे, तेथी अनादि काळथी
अत्यार सुधी दरेक समये अनंत दुःखने पाम्यो छे. दुःखने दुःख तरीके क््यारे मानी शके के भेदज्ञानपूर्वक
अंदरमां एकलो ज्ञानानंद छुं तेमां निर्विकल्प शान्तिरसनो अनुभव करे त्यारे. आवो अनुभव गृहस्थदशामां
पण थई शके छे. ढोर, देव अने नरकदशामां पण थई शके छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए “जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःख अनंत” एम कह्युं छे पण अमुक न कर्युं,
दया दानादि पुण्य न कर्यां, माटे दुःख पाम्यो एम कह्युं नथी. आत्मा अनादिथी छे, छे ते कदी न होय एम
बने नहीं, जे नथी ते कदी नवुं थतुं नथी, छे ते ज टकीने पोतानी अवस्थाथी पोतामां ज पोतानी शक्तिथी
बदले छे.
पैसा, शरीर हाथपग जड छे. जड–चेतन अनादिथी जुदा छे. जीव पोताना असली स्वरूपने भूली,
परने पोतानुं मानी चार गतिमां भ्रमण करे छे, ते पुण्यपापनुं फळ छे.
“वीत्यो काळ अनंत ते कर्म शुभाशुभ भाव,
तेह शुभाशुभ छेदतां उपजे मोक्ष स्वभाव.”
शुभाशुभभावनुं स्वामीत्व ते मिथ्यात्व छे, मिथ्यात्व ते संसार छे. अज्ञानी पुण्यथी सुख माने छे तेथी
सिद्धभगवानना सुखनी जाति संसारी जीवना विषय संबंधी सुख जेवी माने छे पण संसार–सुख तो झेर छे.
ईच्छा–आकुळतानो अभाव अने अतीन्द्रियज्ञानमां लीन रहेवुं ते सुख छे. शुभ राग अने तेना
फळमां जराय सुख नथी, मोटरवाळाने सुखी न मानशो. विचार करो ते मोटरमां बेठो छे के मोटर तेनी छाति
उपर बेठी छे? तेना मानेला वैभवने निभाववानी, आबरूनी तुष्णाथी ते निरन्तर दुःखी छे. पुण्य पाप
बेउने मलिन अने दुःखरूप कह्यां छे.
जेम भूंडने विष्टानो खोराक रुचे छे ने होंशे ते खाय छे–मनुष्यो अनाज खाई, पचावी विष्टाने काढी
नाखे छे तेने भूंड खाय छे, तेम ज्ञानीओए वीतरागता पचावीने, पुण्यपापने विष्टानी जेम छोडी दीधा छे.
विकारीभावने जेओ भला माने छे तेने भूंडनी उपमा छे. अनंतवार अबजपति थयो, अनंतवार जैन
मतमां द्रव्यलिंगधारी साधु थयो, पण अंतरमां रागादि विकल्पथी पार मोक्षस्वभावी आत्मा शुं अने मोक्षनो
उपाय शुं, मलिनभावरूप आस्रव शुं ते जाण्युं नही. नवतत्त्वनां नाम जाणे, पण तेना स्वरूपनो निर्णय करी,
तेना प्रयोजनने न जाणे त्यां सुधी आत्महित न थाय.
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदथी परिपूर्ण छे. संयोग अने विकारनी द्रष्टि छोड. पराश्रयनी श्रद्धा
छोडी, स्वाश्रयनी द्रष्टिथी तारा परम स्वभावने देख. एकरूप पूर्णानंद ज्ञायक ते हुं छुं एम अनुभव, अने
पुण्यपाप बेउ दुःख छे, बंधन छे–एम निर्णय कर. वीतरागी द्रष्टि थतां ज शुभाशुभ बेउनो प्रथम श्रद्धामांथी
एकदम त्याग थई जाय छे. शुभ रागने हितकर माननार मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्या अभिप्राय रहित निर्मळ
ज्ञानानंदनी श्रद्धा पूर्वे कदी करी नथी. तेथी राग अने तेना फळमां ज तेने उत्साह वर्ते छे.
जेम सन्निपातनो रोगी, वात, पित्त अने कफनो प्रकोप थवाथी खडखड हसे छे. छतां ते सुखी नथी,
बीजाओ तेने दुःखी ज माने छे, बेभानमां ते हसे छे पण थोडीवारमां ते मरी जशे; तेम पुण्य अने तेना
फळमां जेओ हर्ष माने छे तेओ बेभान बनेला मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप त्रिदोषनां प्रकोपवडे असाध्य
रोगी जेवा छे.