Atmadharma magazine - Ank 228
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 9 of 31

background image
: ८ : आत्मधर्म: २२८
खरुं वास्तु छे. संसार अने तेनुं कारण आस्रव तथा बंधभाव छे; मोक्ष तथा तेनुं कारण वीतरागी अबंध
भाव छे. आम कारण कार्यमां फेर होवा छतां जे तेम मानतो नथी ते जीव मोक्ष अने स्वर्गना साधननी एक
जाति माने छे.
शुभाशुभभाव तो औपाधिकभाव छे–व्यवहार रत्नत्रय शुभराग छे तेनो त्रिकाळी
चैतन्यस्वभावमां तो अत्यंत अभाव छे ज पण स्वभावना आश्रये निश्चय रत्नत्रयरूप वीतरागभाव
प्रगट थाय छे तेमां पण ते शुभ व्यवहारनो अत्यंत अभाव छे. गुणस्थाननी भूमिका अनुसार जे
जातनो शुभराग होय छे तेने ज व्यवहार साधन उपचारथी कहेवाय छे; पण ते राग छे माटे
वीतरागता छे एम नथी. माटे प्रथम श्रद्धामां सर्व रागनो निषेध करी, स्वसन्मुखतारूप अंतर
एकाग्रताना बळथी शुभाशुभरागथी दूर करी निर्विकल्प परमानंदमय पूर्ण शुद्धता प्रगट करवी ते मोक्ष
छे. मोक्षमार्ग ते अपूर्ण शुद्धता छे अने मोक्ष ते पूर्ण शुद्धता छे.
“मोक्ष कह्यो निज शुद्धता ते पामे ते पंथ,
समजाव्यो संक्षेपमां सकल मार्ग निर्ग्रंथ,”
बंधनुं कारण.
रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य।
आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः।।
अर्थ:– आ लोकमां निश्चय रत्नत्रय मोक्षनुं कारण छे अने बीजी गतिनुं कारण नथी.
पण जे रत्नत्रयना सद्भावमां पुण्यनो आस्रव थाय छे ते सर्व शुभ कषाय–शुभयोगथी ज
थाय छे अर्थात् शुभोपयोगनो ज अपराध छे, पण रत्नत्रयनो नथी.
भावार्थ:– गुणस्थानो अनुसार मुनिजनोने ज्यां रत्नत्रयनी आराधना छे त्यां देव–
शास्त्र–गुरु सेवा, भक्ति, दान, शील, उपवासादिरूप शुभोपयोगनुं पण आचरण छे. ते
शुभोपयोगनुं आचरण ज देवायुं आदि पुण्य प्रकृति बंधनुं कारण छे अर्थात् आ पुण्य प्रकृति
बंधमां शुभोपयोगनो अपराध छे, रत्नत्रयनो नहि.
(श्री अमृतचंद्राचार्य कृत पुरूषार्थ सिद्धि उपायनी स्व. पंडित टोडरमल्लजी कृत टीका)
मोक्षनुं कारण
मोक्षनुं कारण वीतरागता, वीतरागतानुं कारण अरागी चारित्र, अरागी चारित्रनुं
कारण सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्ज्ञाननुं कारण सम्यग्दर्शन छे. पूर्ण अधिकारी अखंड स्वभावना
जोरे श्रद्धा ज्ञान चारित्रनी निर्मळ पर्याय प्रगटे छे. अधूरी निर्मळ अवस्था अने सम्यग्दर्शन
ते पर्याय छे. भेदना लक्षे विकल्प–राग थाय छे. निर्मळता थती नथी. अवस्थाद्रष्टि गौण करी
निश्चय अखंड स्वभावनुं लक्ष करवुं. धु्रव स्वभावनुं जोर करतां करतां विकारनो व्यय अने
अविकारी पूर्ण निर्मळतानो उत्पाद थाय छे, एटले निमित्त–नैमित्तिक भावनो संबंध सर्वथा
छूटी जाय छे अने वस्तुनो अनंतगुणरूप निज स्वभाव वस्तुपणे एकाकार रहे छे, माटे शुद्ध
नयथी जीवने जाणवाथी ज सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थई शके छे. (स. सारप्रवचन)
प्रभु! तारी स्वतंत्र प्रभुता तें कदी सांभळी नथी. वर्तमान एकेक अवस्था पाछळ
बेहद ताकातरूप पूर्ण पवित्र गुणनी शक्ति अखंड स्वभावपणे भरी छे ते सत्नी वात अपूर्व
भावे अंदरथी उछळीने तें साभळी नथी; तारूं महात्म्य तने आव्युं नथी. जेणे पूर्ण अविकारी
स्वभावनो ज आदर कर्यो तेने स्वप्नमां पण संसारनी कोई वात रूचे नहीं.
(समयसार पु. भाव–१मांथी)