: १२ : : ब्रह्मचर्य अंक :
आत्माना लक्ष वगर स्पर्शेन्द्रियना विषयने छोडीने कोई जीव शारीरिक ब्रह्मचर्य तो पाळे पण
कडवाशमां दुःख अने लाडवा खावामां सुख–आनंद माने तो तेणे ‘रस’ साथे विषय कर्यो छे एटले तेनुं
खरेखर ब्रह्मचर्य जीवन नथी पण विषयी जीवन छे.
तेवी रीते दुर्गंधमां दुःख अने सुगंधमां सुख माने तो तेणे “गंध,, साथे विषय कर्यो छे.
तेम, स्त्री आदिनी आकृतिने कारणे विकार थवानुं माने अने भगवाननी मूर्ति वगेरेना कारणे
वीतरागता थवानुं माने, अगर रूपने लीधे ज्ञान थयुं एम माने तो तेणे ‘रूप (वर्ण) साथे विषय कर्यो छे.
वळी, निंदा वगेरेना शब्दो द्वेष करावे अने प्रशंसाना शब्दो राग करावे अथवा देव–गुरुनी वाणीथी
मने ज्ञान थाय–ए जेणे मान्युं छे तेणे ‘शब्द’ साथे विषय कर्यो छे.
अने ब्रह्मचर्यना नामे जेणे मान पोषवानी के बीजी कोई वस्तुनी रुचि होय तो ते जीवे मान साथे
विषय कर्यो छे.
उपर प्रमाणे जे जीवनी परिणति पोताना स्वघरने छोडीने पर घरमां भमे छे, आत्मविषय छोडीने
पर विषयोमां एक्ता करे ते जीव खरेखर ब्रह्मचारी नथी पण अब्रह्मचारी छे. सम्यग्दर्शनमां स्वद्रव्यने
विषय करनार छे जे स्वद्रव्यनो विषय करे तेने परद्रव्यनो विषय टळे, जे स्वद्रव्यने विषय न करे ने पर द्रव्य
साथे ज विषय करे तेने कदी विषय टळे नहीं.
कोई जीव शुभरागना वेगवडे बाह्य त्यागी–द्रव्यलिंगी तो थई जाय पण एम मानतो होय के मने
निमित्तथी लाभ–नुकशान थाय, अथवा तो जे पुण्यनी वृत्ति थाय छे ते मने धर्मनुं कारण छे, तो ते–जीवे पर
विषयनो अने परभावनो संग जरा पण छोड्यो नथी, ने तेने आत्मिक ब्रह्मचर्य जरापण प्रगट्युं नथी.
पुण्यभाव तो पर विषयना लक्षे ज थाय छे. ते पुण्यने जेणे धर्म मान्यो तेणे खरेखर परविषयोमां सुख छे–
एम ज मान्युं छे. तेथी तेने अंतरमां परविषयोनो संग छोडवानी रुचि नथी पण पर विषयोनो संग
करवानी रुचि छे. पर विषयोनोसंग करवानी रुचि ते अब्रह्मचर्य ज छे. जे जीव देव–गुरु–शास्त्रथी आ
आत्माने लाभ थाय एम माने ते जीवने देव–गुरु–शास्त्रना विषयने छोडवानी रुचि नथी पण देव–गुरु–
शास्त्रनो विषय करवानी रुचि छे. जेम स्त्री वगेरेमां सुखबुद्धि ते विषय छे, तेम देव–गुरु–शास्त्र पण
परविषय छे; तेमां सुखबुद्धि ते पण विषय ज छे. एक अशुभ छे अने बीजो शुभ छे एटलुं ज; परंतु छे तो
बन्ने विषय, एक अब्रह्मना ज ते बे प्रकार छे.
मारा असंग चैतन्यतत्त्वने कोई पर द्रव्यनो संग जरापण नथी. पर द्रव्यना संगथी मारामां जरापण
सुख नथी, पण पर द्रव्यना संग वगर ज मारा स्वभावथी मारुं सुख छे–एम जे जीवे पोताना अतीन्द्रिय
आत्मस्वभावनी रुचि अने लक्ष कर्युं छे तथा सर्व ईन्द्रियविषयोनी रुचि छोडी छे ते भव्य जीव खरुं
आत्मजीवन–ब्रह्मजीवन जीवे छे. एवा सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा भगवान समान छे–एम ज्ञानीओ कहे छे.
आ शरीर तो काष्टनी पूतळी समान जड छे ने चैतन्यमूर्ति आत्मा तेनाथी जुदो छे एम जाणे एटले
के शरीर अने आत्मानुं भेदज्ञान करे तेने भगवान समान कहेवाय छे. बीजाना सुंदर शरीर देखवाने कारणे
तेने लेश पण विकार थतो नथी. एटले तेमां आत्माना लक्षे ब्रह्मचर्य पाळवानुं ज आव्युं. बाकी शरीरना
लक्षे शुभभाव रूप ब्रह्मचर्य राखे ने विषय ईच्छा न करे ते पुण्यबंधनुं कारण छे, पण मात्र एवुं शुभ
भावरूप ब्रह्मचर्य पाळनारने ‘भगवान समान’ कह्यो नथी.
आ रीते खरेखर आत्मस्वभावनी रुचिनी साथे ज ब्रह्मचर्य वगेरे सर्व गुणोनां बीजडां पडेलां छे. ने
जेम जेम ते रुचिनो विकास थतो जाय छे तेम तेम आत्मिक ब्रह्मचर्य, अहिंसा वगेरे गुणो पण विकसता जाय
छे. माटे साचुं ब्रह्मचर्य जीवन जीववाना अभिलाषी जीवोनुं पहेलुं कर्तव्य ए छे के सर्वे पर विषयोथी खाली
ने अतीन्द्रिय सुखथी भरपूर एवा पोताना आत्मस्वभावनी रुचि करवी, तेनुं लक्ष करवुं अने तेनो
अनुभव करीने तेमां तन्मय थवानो प्रयत्न करवो.
ए प्रकारे ब्रह्मचर्य जीवन जीवनार अवस्य परमात्मा थई जाय छे.