ज्ञान अने आनंदनो पिंड छे, तेनी द्रष्टि थतां निमित्त अने
संयोगनी उपेक्षा थई जाय, अने आनंदनी प्रगटता थाय,
ते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान सहित सम्यक् चारित्र छे.
आत्मस्थिरताने चारित्र कहे छे. ते मोक्षनुं कारण छे, पूर्ण
परमानंद दशानुं कारण छे. दसमो धर्म ब्रह्मचर्यनो छे. ब्रह्म
एटले आत्मा, चर्य एटले चरवुं. आत्मामां चरवुं–रमवुं–
लीनता करवी, ते ब्रह्मचर्य छे, आत्मा शरीर, कर्म आदिना
रजकणोथी जुदो छे, विकार विकृत स्वरूप छे, आत्मानो मूळ
स्वभाव ज्ञान अने आनंद छे. तेवा आत्मामां स्थिरता
करवी ते ब्रह्मचर्य छे. ते वस्तुस्वभाव छे. काया वडे
ब्रह्मचर्य पाळतां जे शुभराग थाय, ते पुण्यनुं कारण छे.
अंशी स्वभावमां अंशने वाळी शांतिनी एकाग्रता प्रगटे, ते
ब्रह्मचर्य छे, ते धर्म छे. आत्मभान पूर्वक ब्रह्मचर्यनो शुभ
राग आवे ते व्यवहार ब्रह्मचर्य छे, ते पुण्यबंधनुं कारण छे.
नाम ने स्वरूप जणावीने दसमा ब्रह्मचर्य धर्म माटे नीचे
प्रमाणे कह्युं छे.
आपतां वस्तुनो स्वभाव कह्यो. वस्तु कहेतां आत्मा
अथवा ब्रह्म छे तेमां रहेवुं–चरवुं ते आत्मानो स्वभाव छे.
माटे वस्तुस्वभाव कहो अथवा ब्रह्मचर्य धर्म कहो–एक ज छे.
जे नरनारी सेवशे, अनुपम फळ ले तेह.
पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान
पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान.
तत्त्वं।
विरलाः भावयन्ति तत्त्वं विरलानां धारणा भवति।। २७९।।
तत्त्वं कथ्यमानं निश्चल भावेन गृहणाति यः हि।
तत् एव भावयति सदा सः अपि च तत्त्वं विजानाति।।
२८०।।
पण विरला ज तत्त्वनी भावना एटले के वारंवार
अभ्यास करे छे; अने अभ्यास करीने पण तत्त्वनी
धारणा तो विरलाओने ज थाय छे. (भावार्थ:–) तत्त्वनुं
यथार्थ स्वरूप सांभळवुं–जाणवुं–भाववुं अने धारवुं ते
उत्तरोत्तर दुर्लभ छे. आ पंचमकाळमां तत्त्वने यथार्थ
कहेवावाळा दुर्लभ छे अने धारवावाळा पण दुर्लभ छे.
भावना छोडीने तेने ज निरंतर भावे छे. ते पुरुष तत्त्वने
जाणे छे.
विरला ध्यावे तत्त्वने विरला धारे कोई. योगसार. ६६.
सांभळतां कंटाळो न आववो जोईए, पण तेनो महिमा
थवो जोईए.
* आत्माने समजीने तेना ज महिमामां एकाग्र थवुं ते
सुखनो उपाय छे.
* ज्ञानी पासे वारंवार प्रेमथी आत्मानुं वास्तविक स्वरूप
सांभळवुं, अने वारंवार परिचय करवाथी ज आ
समजाशे–एम विश्वास लाववो.
* जीव पोताना शुद्ध ज्ञायकस्वभावने लक्षमां ल्ये, त्यारथी
तेने मोक्षमार्गनी शरूआत थाय छे.
* सूक्ष्म अने यथार्थ तत्त्वने समजवा माटे अत्यंत तीव्र
अने स पुरुषार्थ जोईए.
* मिथ्याद्रष्टिनो विषय ‘पर’ छे, सम्यग्द्रष्टिनो विषय
‘स्व’ छे.