: १० : आत्मधर्म: २२९
प्रमादवश भूल न थवा माटे सावधान रहे छे छतां जरा अस्थिर थाय तो स्व–परने स्थिर करे अर्थात्
एवो राग आवे.
प्रश्न– बीलाडीने दूध पावुं, भूख्याने देवुं ते स्थितिकरण अंग छे के नहीं?
उत्तर– ना, पण तेओ प्रत्ये अनुकंपानो निषेध नथी. ज्ञानीने एवो शुभराग आवे पण तेने
धर्मना अंग तरीके न माने.
(७) वात्सल्य–पोताना स्वरूप प्रत्ये विशेष अनुराग अर्थात् मारे माटे मारो आत्मा ज ईष्ट
छे. ध्रुव छे, आधाररूप छे, अन्य कोई नहीं एवी द्रढता सहित चिदानंदस्वरूपनो गाढ प्रेम ते निश्चय
वात्सल्य छे. धर्मात्मा साधर्मीओ प्रत्ये विशेष अनुराग ते व्यवहार वात्सल्य छे.
अशंपणे निश्चय मोक्षमार्ग विना व्यवहार मोक्षमार्ग होतो ज नथी. चोथा गुणस्थानथी ज
अनंतानुबंधी कषायना अभावरूप स्वरूपाचरण चारित्र छे ने अंशे जघन्य मोक्षमार्ग छे ते निश्चय
वात्सल्य छे अने धर्मात्मा साधर्मी जैनधर्मी प्रत्ये निस्पृह प्रेम होवो ईर्षा द्वेष न होवो ते व्यवहार
वात्सल्य छे.
(८) प्रभावना–आत्माना ज्ञानगुणने प्रकाशित करे, प्रगट करे. निश्चय प्रभावना तो पोताना
शुद्ध चैतन्यना आश्रयवडे निर्मळ श्रद्धा, ज्ञान अने शुद्धतारूप चारित्र प्रगट करवुं ते छे तथा बीजाओ
सर्वज्ञ वीतरागनुं स्वरूप–साचादेव, गुरु, धर्मनुं स्वरूप समजे अने धर्मनो महिमा वधे ए जातनो
शुभराग [धर्मीजीवने] भूमिकानुसार आव्या वगर रहे नहीं अने एम जे नथी मानता ते मिथ्याद्रष्टि
छे तथा शुभरागथी संवर निर्जरा [–धर्म] माने तो पण मिथ्याद्रष्टि छे.
सम्यग्द्रष्टि पोताने निश्चयशुद्धता, वीतरागताथी ज शोभामाने छे अने बहारमां जिनमंदिर,
रथयात्रा, पूजा प्रभावना काव्यशक्ति, उपदेश तथाशास्त्रोना प्रचारद्वारा धर्म प्रभावनानो भाव आपे
ते व्यवहार प्रभावना छे नीचे निर्विकल्पता वधारे वखत टके नहीं तेथी शुभभाव आवे छे पण जेओ
शुष्क ज्ञानी छे तेओ अशुभथी बचवा शुभभावनो निषेध करे अने प्रमादी थाय ते तो पाप ज बांधे
छे. पंचास्तिकाय शास्त्रमां निश्चयभासीने एकेन्द्रिय वृक्ष समान कह्या छे. –मनमां शुद्ध चिंतवन जेवुं
मानी प्रमादमां मस्त थई पड्या रहे अनेमाने के अमने आत्मानुं निर्विकल्प ध्यान छे तेने अभिमान
तो वधेलुं ज होय छे तेथी तेने देव, गुरु, धर्मनो प्रेम तथा विनय, पूजा–भक्तिनो उत्साह होतो नथी.
निश्चयनुं भान अने अनुभाव होय तेने पण नीचली दशामां व्यवहार श्रद्धा, ज्ञान अने चारित्र
संबंधी प्रभावनानो शुभभाव आवे ज छे.
आमां आठ निश्चय अंग कह्या छे ते तेना प्रतिपक्षी दोषोवडे जे कर्म बंध थतो हतो तेने थवा
देता नथी. चारित्रनी नबळाई वशे अल्प दोष थाय छे तो पण नित्य निर्दोष स्वभावना स्वामीत्वना
जोरथी तेनुं स्वामीत्व तथा कोईपण दोषनो आदर थवा देतो नथी. तत्त्वथी, मोक्षमार्गथी विरुद्ध वातनो
स्वप्नामां पण आदर थतो नथी पण निषेध वर्ते छे तेथी सम्यग्द्रष्टिने निरंतर निर्जरा ज थाय छे केमके
अज्ञान दशामां थवा योग्य एवो नवो बंध तो थतो ज नथी, चोथा गुणस्थानथी ४१ पाप प्रकृतिनो
बंध क््यारे पण थतो नथी; कारण के मुख्य बंधन अने पाप तो मिथ्यात्वनी भूमिकामां थाय छे.
ज्ञानीने निरंतर ज्ञान चेतनानुं स्वामीत्व अने मुख्यता होवाथी अज्ञान चेतना–कर्ता भोकतारूप
विकल्प, तेनुं स्वामीत्व अने भावना नथी.
अहीं समयसारमां निश्चय प्रधान कथन होवाथी व्यवहार आठ अंगनुं वर्णन गौणपणे करेल
छे. धर्मनी भूमिकानुसार उचित निमित्तपणे कई जातनो राग होय ते बताववा माटे निमित्तनी
मुख्यताथी कथनहोय छे पण निमित्तनी मुख्यताथी पण कोईवार आत्महितरूपकार्य थाय ए वात त्रणे
काळे मिथ्या छे.