Atmadharma magazine - Ank 229
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म: २२९
रहित गुण–गुणीना भेद रहित एवो चैतन्य चिंतामणि हुं छुं एवा अनुभव वडे अंतरनां विश्रांतिने
पामेलो होवाथी क््यांय पण पराश्रयमां आत्महित मानतो नथी. हुं नित्य ज्ञानघन स्वभावमां छुं,
पुण्य पाप आस्रवतत्त्वमां हुं नथी–एम स्वभावद्रष्टि, स्वभावज्ञान अने स्वसंवेदनना बळथी निज
रसमां मस्त थयो थको. अतीन्द्रिय आनंदमां मोज करे छे. अनादिनी मुर्छा–बेभानपणुं मटी निज
महिमामां सावधान थयो छे, तेथी बीजे क््यांय पण तेने आनंद भासतो ज नथी. हुं ज मोक्ष छुं, मारे
कांई जोईतुं नथी. आम समकितीने नित्य आनंद स्वभावमां संतोष वर्ततो होवाथी, अज्ञानदशामां
बीजे आनंद भासतो हतो, पराश्रय–व्यवहारमां हित भासतुं हतुं तेनाकारणे निरंतर मिथ्यात्वादि पाप
कर्मनुं बंधन थतुं हतुं तेहवे क््यारे पण थतुं नथी. पण स्वभावद्रष्टिना जोरे शुद्धिनी वृद्धिरूप निर्जरा
थाय छे.
ध्रुव स्वभाव सन्मुख थयो ते थयो. जेम नित्य चैतन्य धातुनो नाश थतो नथी तेम तेनो
अभेद आश्रय कर्यो ते आराधक भावनो पण नाश थतो नथी. तेथी आदि अंत रहित, अनंत सुख
धाममां एकरूपनी द्रष्टि साथे धारावाही ज्ञान ज्ञाननुं ज काम करे छे रागनुं नहि. जेम प्रकाश प्रकाशनुं
ज काम करे. अंधारानुं नहीं तेम आरीते धर्मी जीवने नित्य ध्रुवस्वाधीनतानी द्रष्टि थई ते द्रष्टि ज्ञान
अने स्वरूप तरफनी परिणति ध्रुव धारामां थंभी, अंतर घरमां विश्रांति मळी तेथी–ध्रुव चैतन्यनाआश्रये
अंतरमां ज्ञानधारारूप साधक भाव परम पद मोक्षने पुरुषार्थ अनुसार प्राप्त करे ज छे.
आ पोताना अधिकारनी वात छे. समजाय एवी सीधी वात छे. प्रकाश कर्या विना अंधकार टळे
नहि तेम अंतरमां आनुं पाकुं ज्ञान न करे तो महापाप मिथ्यात्व अने अज्ञानरूपी अंधारूं टळे नही.
जेने संयोग अने विकारनी महत्ता भासे छे ते तत्त्वज्ञाननो निषेध करे छे के जाणवुं मानवुं
तेमां शुं? उपवास करो, व्रत पाळो, पूजा, भक्ति, यात्रा करो, धर्म थाशे. सर्वज्ञ भगवान कहे छे के
एमां शुभराग होय तो पुण्य थाय, धर्म न थाय पण शुभरागने धर्म माने तो अनंत संसारनुं कारण
एवुं मिथ्यात्व नामे महापाप थाय. हित अहितकरी भावनुं अज्ञान तेकांई बचाव नथी.
व्रत, दया, दान, पुण्य तो अनंतवार कर्या, पुण्यनो निषेध नथी पण तेमां धर्म (आत्महित)
मानवारूप मिथ्याश्रद्धानो निषेध छे.
अरे! साक्षात् तीर्थंकर बिराजता होय, तेमना उपर नजर नाखे ने हजारोवार उपदेश सांभळे
छतां जो पोते भेदविज्ञानी न थाय, तो पुण्यपापनी रुचि न छूटे एटले के जराय धर्म न थाय.
पुण्यपाप अने शरीरनी क्रिया मारुं कार्य ने हुं तेनो कर्ता ए मान्यता छोडी एकरूप विशाळ
ज्ञान स्वभावनो आदर करी, तेमां ज स्वामीत्व अने पुण्यपाप रहित निर्मळ ज्ञानस्वभावी हुं नित्य
ज्ञाता ज छुं तेमां द्रष्टि, ज्ञान अने तेनो आश्रय ते धर्म छे, अने तेनाथी निर्जरा छे. ज्ञानीने साचा
देव–शास्त्र–गुरु प्रत्ये बहुमान तथा भूमिकानुसार राग आवे पण तेने मोक्षमार्ग माने नहीं त्यारे
अज्ञानी पराश्रयथी धर्म माने छे. शास्त्र भण्यो होय छतां ऊंडे ऊंडे व्यवहार जोईए, निमित्त जोईए,
एम रागमां रुचि काम करे छे तेथी तो व्यवहारभासी शुभरागनी धमालमां पड्यो छे अनेरागमां
रुचिवाळो स्वच्छंदी निश्चर्याभासी पण तेनी मूढतामां–अविवेकमां संतोष मानीने पड्यो छे.
भेद विज्ञानी जीव चैतन्यचिन्तामणि भगवान आत्मामां रुचि–महिमाअने आश्रय करतो थको
स्वभावमां मोजकरे छे.