: १४ : आत्मधर्म: २२९
सुख माटे झांवा नाखे छे, आमांथी सुख लई लउ–उपवास करूं, व्रतपाळुं एम रागनी वृत्तिथी सुख
लेवा मागे छे. राग ते धर्म नथी छतां धर्म माने छे. तेओ अधर्ममां वास करे छे. प्रभु! तारी लीला
कोई बीजी जातनी छे. ज्ञानानंदना प्रेमनी वहालपमां पुण्य अने निमित्तना प्रेमनी वहालपनो नाश
थया विना रहेतो नथी. पराश्रयनो प्रेम छोडया विना भगवान आत्मानो प्रेम नहि आवे, अनंतगुण
भंडारनी वहालप छोडी पुण्यना शुभरागना प्रेममां पड्यो छे ते व्याभिचारी छे. अरे! व्रत, दया, दान,
भक्तिमां शुभरागमां लाभ मानी रोकाणो ते मोटो व्यभिचारी छे. शुभरागने करवा जेवो माने छे ते
रागादिनो अकर्ता ज्ञातास्वभावी भगवानने भूली गयो छे–तेनी द्रष्टिमांथी खोवाई गयो छे. आत्मा
रागनी सहाय विनानो अरागी, एकलो आनंदमूर्ति छे, तेमां द्रष्टिवडे तेनी पर्यायमां आनंद उछळे छे
त्यारे तेनी साथे ज्ञान तथा सुखगुणनी पर्यायो पण अनंतगुणना रूप सहित अनंतशक्तिवानमां
व्यापे छे, एवी अनंत शक्तिथी भरपुर आत्माने अवलोकनमां ग्रहण कर्या करे तेनुं नाम धर्म छे.
लोको सुखने चाहे छे पण सुखरूप थवुं नथी, केमके दुःखना उपायने ज सुखनो उपाय माने छे,
पोते मानेला सुख माटे शरीरने छोडीने सुखी थवा मागे छे, तेमां एम आव्युं के शरीर न होय तो पण
एकलो सुखी थईश एम मान्युं छे, जो के तेनी तेने खबर नथी पण एनो सिद्धांत एवो नीकळे छे के हुं
शरीर आदि प्रत्ये ममता छोडी ज्ञातामात्र छुं तेवी समता ग्रहण करीने एकलो सुखी रही शकुं छुं.
शरीरने छोड्युं क्यारे कहेवाय के द्वेष–दुःख न थाय, ते क्यारे न थाय के असंयोगी ज्ञानानंद छुं एमां
द्रष्टिने स्थिरता होय तो द्वेष–दुःख न थाय, दुःखने छोडे छे एम कहेवुं ते पण उपचार छे. अशरीरी
ज्ञानानंद नित्य छुं एवी अंदरमां द्रष्टि देतां तेना आश्रये शांति थाय–ए विना व्रत तप उपवास करे
तो करो पण तेनाथी जराय मिथ्यात्वादि दोष मटता नथी जेम भीखमंगा खावा भीख मांगे अने न
आपे तो लोही काढी त्रागा करे तेम देहनी क्रियाथी धर्म एटले सुख मागे ते त्रागा छे.
आत्मा तो अनंत ज्ञानानंदनुं धाम छे तेनी द्रष्टिथी दोलत छे, पूर्ण सुख स्वभावनो सत्कार–
आदर, बहुमान थयुं त्यां तेनी दशामां एक गुणनो आनंद उछळे छे एम नथी पण अनंतगुणनो आनंद
भेगो उछळी आवे छे तेनुं नाम धर्म छे, आ सिवाय बीजो कोई सत्य रस्तो नथी. महाविदेहक्षेत्रमां
सीमंधर परमात्मा पण आने ज मोक्षमार्ग कहे छे अनंता तीर्थंकरो थई गया तेओ पण आज मोक्षमार्ग
कही गया छे. निराकुल स्वभावना लक्षे आकुळतानो व्यय अने निराकुलतानी उत्पत्ति थाय छे, ते वात
तारा हाथमां छे माटे प्रसन्न था. मारी चीज रागद्वेष मोह, विकल्प संयोग विनानी स्वाधीन छे, अखंड
ज्ञान आनंदथी भरपुर छे. तेनी द्रष्टि करी स्वरूपने प्रसन्नताथी निहाळतां ज अंतर्मुख अवलोकतां ज
परम आनंद प्रगट थाय छे–एनी साथे अनंत शक्ति उछळे छे एवा आत्माने भज. एवा आत्मा उपर
द्रष्टि करी आनंदनो स्वाद अने पूर्ण स्वरूपनो आदर थयो तेने सम्यग्दर्शन कहे छे.
४७ शक्तिओनुं वर्णन भरतक्षेत्रमां समयसार विना बीजे क्यांय नथी. तीर्थंकरना पेट–मुख्य
निधान समयसारमां अने आत्मामां छे. द्रव्यनी महत्ता, द्रव्य द्रष्टिनुं वर्णनअहिं केम लीधुं के पराश्रयनी
श्रद्धा–महत्ता छोडी एकरूप पूर्ण ज्ञानघन अनंतशक्तिनो पिंड आत्मा आवो छे तेनी द्रष्टिमां संभाळ
थतां अपूर्व ज्ञान आनंदनी प्राप्ति थाय एवो मार्ग स्पष्टपणे आ शक्तिओ बतावे छे, बहारमां
दोडवाथी नहि मळे, ठर रे ठर बीजेथी नहि मळे.
विर्य – शक्ति
वीर्य शक्ति:– आत्म सामर्थ्य बळ जे आत्मस्वरूपमां निर्मळ श्रद्धा ज्ञान आनंद आदि स्व
सामर्थ्यनी रचना करे तेने वीर्य शक्ति कहे छे. पुन्य पाप शरीर रहित आत्मा छे. तेमां वीर्य गुण शुं
काम करे छे? अतीन्द्रियज्ञानमय स्वरूपनी रचना करे छे अर्थात् तेमां निर्मळ श्रद्धा ज्ञान सुखनी रचना
करे, परंतु शरीरनी क्रिया, छ पर्याप्तिनी रचना करे तेआत्माना वीर्यनुं कार्य नथी.