कारतक: २४८९ : १प :
आत्मा तो नित्य चैतन्यस्वभाव छे तेमां रागने रचवानी योग्यता नथी. पंचमहाव्रत शुभराग छे,
आस्रवतत्त्व छे, झेर छे तेने विषकुंभ कहेल छे केमके तेनामां आत्मस्वभाव रचवानी योग्यता ज नथी, रूनी
पूणीमांथी रू ना तार नीकळे तेम आत्माना वीर्यगुणनी संभाळ करता–वीर्यवान अनंतगुण संपन्न आत्मा
उपर द्रष्टि देतां साथे अनंतगुणना निर्मळ पर्यायनी उत्पत्ति थाय ते वीर्यनुं कार्य छे. पुन्य पाप मिथ्यात्वनी
रचना करे ते उधुं वीर्य छे तेनेआत्मानुं वीर्य कहेता नथी. अज्ञानभावे रागादिने रचे तेने आत्मानुं वीर्य
कहेवातुं नथी. अहो! भगवान तने श्रुतामृतना घी पामेलां मेसुब पीरसाय छे. धूळमां कांई नथी.
भगवान आत्मा नित्य ज्ञानामृत भोजी स्वभाववान छे, एवा निज स्वरूपनी आराधना
करतां अनंतबळनो प्रकाश करनार बेहद वीर्यनो धारक अनंतगुण पींड हुं आत्मा छुं एम तेनी उपर
द्रष्टि पडतां निर्विकारी आत्मकार्य रचे ते आत्मवीर्यनुं कार्य खरूं के नहि? ना, जडना कार्य स्वतंत्रपणे
पुदगल द्रव्य करे छे, व्यवहारनयथी बोलाय पण आत्मा परनुं कार्य करी शके नहि. आ पुरूष बहु
बळीयो छे एक मुकी मारे तो आम थाय–बोले तो आम थाय अरे–एतो स्थूळ व्यवहार कथन छे.
प्रश्न:– बीजो निमित्त तो थाय छे ने?
उत्तर:– निमित्तनो अर्थ एटलो ज के आ होय त्यां ए होय अर्थात् उपादाननुं निमित्ते कांई
कार्य कर्युं नथी, केमके बेउ भिन्न छे स्वयं कार्य परिणत थाय तेने उपादान कहे छे तेने कार्य कर्यु त्यारे
भिन्न वस्तुरूपे कोण हतुं ते बताववा निमित्तनी मुख्यताथी कथन आवे छे पण निमित्तद्वारा परमां कार्य
थयुं, निमित्ते कांई असर मदद प्रेरणा करी तो बीजानुं कार्य थयुं ए वात त्रण काळमां मिथ्या ज छे.
अहो! द्रव्यद्रष्टिनुं वर्णन.
अहो! आ चैतन्यशक्तिनो पिंड द्रव्य छुं एमां द्रष्टिवडे चैतन्य रत्नाकरना महात्म्य उछाळा
आव्या छे ते, सहुनुं स्वतंत्रपणुं सहुमां छे एम देखे छे, पण ज्यां सुधी संयोगी द्रष्टि छे त्यां सुधी तें
तने पण स्वतंत्रपणे पूर्णपणे अवलोक्यो ज नथी.
प्रश्न:– बहारना कार्यने अने जीवनी ईच्छाने मेळ छे ने?
उत्तर:– ना, ईच्छा ज्ञाननुं कार्य नथीरागने रचे तेने आत्मानुं वीर्य कहेवामां आवतुं नथी.
आत्मा ज्ञान करे अथवा अज्ञानभावे राग करे पण परनो कर्ता थई शकतो नथी, पैसाराखी
शकतो नथी, व्यवहार रत्नत्रयना विकल्प ऊठे तेने आत्मद्रव्य कदि कारण नथी. शुभाशुभ रागना
कारणमां पर्यायद्रष्टिए पर्याय कारण छे, पण ते योग्यता द्रव्य स्वभावमां नथी. अहो? तारो नित्य
चैतन्य ज्ञाता स्वभाव छे, विकल्पने तोडवा के पकडवा ते तारूं कार्य नथी. अंदर एकता थतां ज्ञाननुं वीर्य,
दर्शन सुख आदि अनंतगुणनुं वीर्य एक साथे उछळे छे ते बधामां वीर्यपणुं बतावे छे, ते अनंतगुणनो
आधार आत्मा छे तेनी उपर द्रष्टि दीधे धर्म छे. अहो! आ वात जैन सिवाय बीजे क्यां होय?
स्वरूपने अवलोकतां पर जणाई जाय छे. गरीबाई हती त्यारेक्यांय खोदता सोनानो भंडार जडे तो
केटलो हर्ष–उत्साह थई जाय पण ते तो धूळ छे, स्वप्न समान छे. पण बधानो जाणनार असंग अविकार
अनंतगुणधाम छुं, पराश्रयनीय द्रष्टि छोडीने निश्चय द्रष्टिथी निजने अवलोकतां ज हुं अनंतगुणधारी
ज्ञायक वीर छुं एना महिमानो परमआनंद उछळे छे, ते साथे अनंतगुणनो आनंद पण उछळे छे.
श्री कुंदकुंदाचार्यदेव धर्मना धोरी हता, निर्मळ दर्शन ज्ञान चारित्रमां झुलताहता, तेमने पण
व्यवहार रत्नत्रयनो विकल्प आवे खरो, पण तेनो आश्रय करवा जेवो छे एम मानता न हता ने
तेमां वीर्य रोकाय तेने आत्माना वीर्यनुं कार्य न कहेतां आस्रव तत्त्वमां अने पुदगल द्रव्यमां नाखी देता
हता. औदयिक भावने रचे ते आत्मतत्त्व नहि, तत्त्वार्थ सुत्रमां ज्ञानप्रधान कथनथी औदयिक भावने
स्वतत्त्व कह्युं पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी ज्ञाता स्वभावथी भिन्न कही विरुद्ध तत्त्वमां अजीवमां नाखी