: १६ : आत्मधर्म: २२९
दीधुं छे, चैतन्य–स्वभावनी संभाळ करतां रागादिनी रचना करनार पणुं भासतुं नथी. चारित्र दोषथी
रागनी रचना छे ते आत्मभाव नथी एम रागथी भेदपाडी अभेद स्वरूपनो ज आदर करावेल छे.
क्रमबद्ध पर्यायना निर्णयमां अकर्त्तापणानो पुरुषार्थ छे. हुं जाणनार तत्त्व छुं, स्वभाव द्रष्टि थई ते
स्वभावनुं ज काम करे–आत्माने जागृत करे छे, आत्मामां वीर्य गुण छे अने पुरुषार्थ तेनी पर्याय छे,
क्रमबद्धपर्यायना निर्णयमां अकर्तापणानो, स्वभाव सन्मुख ज्ञातापणानो पुरुषार्थ छे तेमां सर्व
विभावनी उपेक्षा छे. हुं क्रमबद्ध पर्यायनो जाणनार छुं, ज्ञान स्वभाव उपर द्रष्टि पडी ते स्वाभाविक
काम करे छे नेआत्माने प्रसिद्ध करे छे.
नियतनो निश्चय करनारो जाग्यो ते स्वसन्मुखज्ञातापणाना पुरुषार्थमां लागेल ज होय छे. द्रव्य
गुण अने तेनी दरेक समयनीय पर्याय त्रणे स्वपणे सत् छे, परथी असत छे. द्रव्य गुण पर्याय त्रणे
परथी अणकरायेल छे, तथा परमां कर्त्तापणा रहित छे, एम नियतस्वभावी धर्मने जाण्यो तेने अक्रम
अनंतगुणनो पिंड एकरूप ज्ञायकभाव ते हुं छुं, एमां द्रष्टि देतुं फाटफाट वीर्य उछळे छे ते केवळज्ञाननो
साधक चैतन्यप्रभुनी ज्ञानानंदमय लहेरोने उछाळतो परनाअने रागना कार्यनो कर्त्ता थतो नथी,
ज्ञानानंद लहेरनी रचना करनारो छुं एमां अभेद द्रष्टि वडे सावधान थयो त्यां अनंत ज्ञान दर्शन,
सुख, वीर्यनो पुरुषार्थ एक साथे छे, ने ते जीव केवल ज्ञानना किनारे आवी अल्पकाळमां केवळज्ञानी
परमात्मा थई जाय छे.
दरेक समये (१) स्वभाव, (२) पुरुषार्थ, (३) काळ, (४) नियती, (प) कर्म ए पांच
समवाय एक साथे होय छे, पराश्रयनी श्रद्धा छोडी भेदने गौण करी हुं त्रिकाळज्ञायक पूर्णस्वाधीन वस्तु
छुं एमां द्रष्टि दईने अप्रतिहतधाराथी जाग्यो, हुं केवळज्ञान स्वभावी छुं एवा निश्चयथी जाग्यो ते
सम्यग्द्रष्टि छे ते कदि बहारमां आखी दुनिया प्रतिकूळ होय तो पण मारा ज्ञाता स्वभावमां जराय खंड
पडतो नथी, निरंतर अखंड ज्ञान शान्तिमय अंतरंग ज्ञानधारामां भंग पडतो नथी एम स्वरूप
सामर्थ्यनी रचनामां सावधान थयो ते निरंतर निर्भय छे, प्रसन्न छे.
अनंतवीर्यद्वारा अनंतगुणनी सामर्थ्य रचनाने धारण करनारा आत्मामां आनंदनी रेलमछेल
करनार, आत्मवैभव बतावनार आत्मवैभवशाली गुरुदेवनो जय हो.
श्री गुरुनां चरणकमळनी सेवानो प्रसाद
तत्त्व विचारमां चतुर, निर्मळ चित्तवाळो जीव गुणमां मोटा एवा
सुगुरुना चरण कमळनी सेवाना प्रसादथी चैतन्य परमतत्त्वने पोताना
अंतरमां अनुभवे छे. गुणमां (सम्यग्दर्शन–ज्ञानादिमां) महान गुरु
शिष्यने कहे छे के प्रथम भावने जाण–परथी भलुं भूंडुं मानवुं छोड, देहमां
रहेलो छतां देहथी–शुभाशुभरागथी भिन्न एवा तारा असंग परम
चैतन्यतत्त्वने अंतरमां देख, आ ज हुं छुं एम भावभासनवडे चैतन्यनो
अनुभाव थाय छे.
श्री गुरुनां आवा वचन द्रढपणे सांभळीने निर्मळ चित्तवाळो शिष्य
अंतरमां तद्रुप परिणमी जाय छे... ने एवी सेवा (उपासना) ना प्रसादथी
लायक जीव पोताना आत्मानो अनुभव करे छे.