Atmadharma magazine - Ank 229
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म: २२९
तो देहादिरूपे कदी नथी, हुं तो सदा ज्ञाता साक्षी छुं. परवस्तु लाभ–हानि करवा समर्थ नथी, ते तो ज्ञेय
छे. परवस्तु कोईने बाधक साधक नथी–एम वस्तुस्वभावने जाणनार रहीने नित्य ज्ञातास्वभावनी
श्रद्धामां सावधान रहे छे.
हुं परनुं कांई करी शकुं अने पर वस्तु मारूं ईष्ट अनिष्ट करी शके एम माननार मिथ्याद्रष्टि छे.
मिथ्यादर्शन ज सहुथी मोटुं पाप छे. सम्यग्द्रष्टि तो शुभाशुभ रागने पण परज्ञेयपणे जाणे छे, तेमां
शुभभावने भलो अने अशुभ राग भूंडो एवा भेद जोतो नथी. संसारअपेक्षाए, पाप अपेक्षाए
पुण्यने ठीक कहेवाय छे, पण मोक्षमार्ग अपेक्षाए बेउने बाधक अने अहितकर मानवामां आवेल छे.
एक द्रव्य बीजा द्रव्यने स्पर्शतुं नथी. मात्र एक आकाश क्षेत्रे, संयोग वियोगरूप अवस्था
बदलाय छे. शरीरने छरी वागे, अग्नि आवे, कांटा वागे, माथुं कापनार मळे तो पण स्वसन्मुख
ज्ञातापणानी बेहद धीरजरूपी सहज क्षमा ज्ञानीने होय छे. अरे! ... आम केम? एवो मनमां विकल्प
पण न ऊठे. पण आकाळे आम ज होय, मारा ज्ञाननी स्वच्छतानो काळ ज एवो छे के स्व–पर
प्रकाशक ज्ञान अने सामे ज्ञेय आम ज होय एम नित्य ज्ञातास्वभावथी समता वंत रहे तेनुं नाम
उत्तम क्षमा छे.
क्रोधनाकारणो मळे छतां आ रीते भेद विज्ञानना बळथी क्रोधनी उत्पत्ति न थाय. भय, आशा,
स्नेह अने लोभादिने कारणे क्षमा राखे ते क्षमा नथी, अने सम्यग्द्रष्टिने क्षमाना शुभ विकल्प रहे छे ते
व्यवहार क्षमा छे; साथे स्वद्रव्यना आश्रयरूप शान्ति, जागृति रहे ते निश्चय क्षमा छे.
गमे तेवा प्रतिकूळ–अनुकूळ पदार्थो मळे तो पण मने तो कोई मळतुं ज नथी, हुं पराश्रय
विनानो ज्ञाता ज छुं, सदाय परथी जुदो साक्षी छुं, मारा अनंत गुणोथी परिपूर्ण छुं–एवी द्रष्टि उपरांत
स्वरूपमां सावधानी घणी छे, तेनेउत्तम क्षमा छे पोताना बेहद अकषाय स्वभावमां सावधान रहेवाथी
क्रोधादिनी उत्पत्ति न थवी तेनुंं नाम साची क्षमा छे. सम्यग्दर्शन पण मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी
कषायनी अनुत्पत्तिरूप क्षमा छे. भूमिकानुसार सहन करवानो शुभभाव आवे छे त्यां अंशे स्वाश्रय,
वीतरागता ते निश्चय क्षमा अने शुभराग ते व्यवहार क्षमा छे.
तत्त्वार्थ सूत्र एटले मोक्षशास्त्रमां कथन आवे छे के एकेक तीर्थंकरना तीर्थमां दस दस महामुनि
घोर उपसर्ग सहन करीने, परिषह जीतीने, अंतमां समाधिमरणद्वारा प्राणोनो त्याग करीने स्वर्ग–
विमानोमां उत्पन्न थया.
अहीं स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षा गा. ३९४नी टीकामां वर्णन छे के– (१) श्री दत्तमुनि व्यंतरकृत
उपसर्ग जीतीने केवळज्ञान उपजावी मोक्ष गया, तथा (र) चिलाती पुत्रमुनि व्यंतरकृत उपसर्ग जीती
सर्वार्थसिद्धि गया, (३) स्वामी कार्तिकेयमुनि क्रोंच राजाकृत उपसर्गने जीती देवलोक गया, (४)
गुरुदत्त मुनि कपिल ब्राह्मणकृत उपसर्गने जीती, केवळज्ञान उपजावी मोक्ष गया, (प) श्री धन्यमुनि
चक्रराजकृत उपसर्गने जीती, केवळज्ञान उपजावी मोक्ष गया, (६) पांचसोमुनि दंडक राजाकृत उपसर्गने
जीती सिद्धिने (मोक्षने) प्राप्त थया, (७) राजकुमारमुनि पांशुल श्रेष्ठीकृत उपसर्गने जीती सिद्धिने प्राप्त
थया, (८) चाणकयादि पांचसो मुनि मंत्रीकृत उपसर्गने जीती मोक्ष गया, (९) सुकुमालमुनि
शियाळकृत उपसर्ग जीती देव थया, (१०) श्रेष्ठीना बावीस पुत्रो नदीना प्रवाहमां पद्मासने शुभ
ध्यान करी देव थया, (११) सुकोशलमुनि वाघणकृत उपसर्ग जीती सर्वार्थसिद्धि गया, (१२) श्री
पणिकमुनि जळनो उपसर्ग सहीने मुक्त थया, एवा देव, मनुष्य, पशु अने अचेतनकृत उपसर्ग
सहनकर्या छतां देहमां–रागादिमां एकता बुद्धि न