कारतक: २४८९ : १९ :
करी अने क्रोध न कर्यो तेमने उत्तम क्षमा थई; ए प्रमाणे उपसर्ग करवावाळा उपर पण क्रोध न उपजे
एवो आत्मा आत्मभावनामां बळवान रहे.
भेदज्ञानद्वारा एवुं चिन्तवे के जो कोई मारा दोष कहे छे ते जो मारामां दोष छे तो ते शुं खोटुं
कहे छे? एम विचारी समभाव राखे. वळी जो मारामां दोष नथी तो जाण्या विना अज्ञानवंशे कहे त्यां
अज्ञान उपर कोप शुं करवो? वचन शब्दरूप भाषा वर्गणा छे, तेनो कर्त्ता कोई जीव नथी. क्रोध करनार
जीव तेनी कषायरूप पीडानुं समाधान करे छे, मारूं कांई करी शकतो नथी. हुं तो ज्ञाता ज छुं. आम
ज्ञानानंद स्वभावमां सावधानी वडे क्रोध उत्पन्न न थवो ते क्षमाने भगवाने साची क्षमा कही छे.
समयसारजीमांथी, ४७ शक्तिओमांथी १३मी शक्तिनुं वर्णन चाले छे.
क्षेत्र काळथी अमर्यादित् एवा चिद्दविलास स्वरूप असंकुचित् विकासत्त्व शक्ति आत्मामां छे.
ए गुणमां पण अनंतगुणनुं रूप छे; एवा अनंतगुणोनो पिंड ज्ञान मात्र आत्मामां द्रष्टि देवाथी, प्रगट
पर्यायमां अखंडित प्रतापवंत असंकुचित्व चैतन्य विकासनो विलास ऊछळे छे. सम्यग्दर्शन अलौकिक,
अदभूत, अपूर्व शक्ति छे. तेनी साथे आ तेरमी शक्ति एम बतावे छे के कोई तने लाभ नुकशान करी
शके नहीं, केमके एवो कोई गुण आत्मामां नथी, पण कोई क्षेत्र, काळ, कर्म विकारथी तारो विकास
रोकाय नहीं, अने ध्रुव स्वभाव सामर्थ्यना आश्रय वडे विकास थाय एवो गुण आ शक्तिमां छे. आम
अनंतगुण सहित स्वतंत्रताथी शोभायमान नित्य सामर्थ्यपणे टकीने बदलवुं ताराथी छे, तारा आधारे
छे, परथी नथी; माटे पर चीज कोईने के आ आत्माने बाधक साधक थई शकती नथी आम जाणवुं तेनुं
नाम साचुं अनेकान्त छे.
१३मी शक्तिनुं वर्णन दोढ लीटीमां टूंकामां घणुं कही नाख्युं छे, जेम एक महान व्यापारीए
खुल्ला पोष्टकार्डमां तेना आडतीया उपर लखेलुं के अत्यारे रूऊनो भाव एक खांडीना प००) छे, पण
प४०) सुधी बे लाख गांसडी खरीदजो, जुओ दोढ लीटीमां केटलो गूढ अर्थनो विस्तार भर्यो छे ते
पोस्टमेन वांचे तो न समजे; पण कोई चतुर व्यापारी तर्कद्वारा समजी ले के अहो! नानी जग्यामां
दुकान छतां बेउ पार्टीनी मोटी प्रतिष्ठा, परस्पर विश्वास अने निर्भयता केवी छे! ते विना खुल्ला
पत्रमां आवुं लखाण होई शके नहीं; तेम सर्वज्ञ भगवाननी समयसरजीमां एक एक शक्तिनी खुल्ली
चीठ्ठी आवी छे ते सम्यग्द्रष्टि शाहुकार उपर लखी छे. लखनार सर्वज्ञ वीतराग देवाधिदेव छे. अधरथी
लखीतंग अने मफतलालनी सही एम नथी.
अहो! तारामां एवी शक्ति अर्थात् नित्य सत्तात्मक अनंतागुण छे. ते शक्तिवान उपर द्रष्टि दे
तो भेद अने पराश्रयनी द्रष्टि छूटी, विकारनी उपेक्षा थई, आत्मामां अमर्यादित विकास शक्तिनुं कार्य
द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां व्यापे छे; साथे ज दरेक गुणनो विकास बाधा रहितपणे आत्माभिमुख थई
वर्ते छे तेना प्रतापने कोई क्षेत्र, काळ, कर्म के संयोग विघ्न करवा समर्थनथी एवी चिद्दविलास शक्ति
मारामां छे, एम जाणी पूर्ण स्वभावी चैतन्य सन्मुख थवुं तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
दर्शनमोह कर्मनो उदय आवे तो मिथ्यात्व थाय; अरे चाल रे चाल, तुं होतां तने कोण हणी
शके, परवडे पराधीनपणुं बतावे ते वात ज्ञाता माने नहीं. पर्यायमां संकोचरूपे पोतानी क्षणिक योग्यता
छे तेने द्रव्यद्रष्टिना विषय द्वारा जीवनुं परिणमन मानता नथी.
जे भावे तारी पर्यायमां संकोच थाय अने विकास न थाय एवो गुण तारामां नथी–एम
जाणीने क्षणिक विभावनुं आलंबन छोड अने निर्मळ शक्तिओनो पिंड स्वभाववान छो तेनुं आलंबन
कर तो अपूर्णता नहीं रहे. (क्रमश:)