Atmadharma magazine - Ank 229
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म: २२९
सुभौम चक्रवर्तीनी
पौराणिक कथा
राजभुवन सुंदर ध्वजाओ अने तोरणो आदिथी सुशोभित हतुं, चारे बाजु दिवाल अनेकोट
उपर अद्भुत सुंदरतादर्शक चित्रो बनेलां हता, छ खंडना अधिपति सुभौम चक्रवर्ती रत्नजडित
सोनाना सिंहासन पर बिराजमान हता, पासे मंत्रीगण तथा अन्य सभासदो बेठा हता, नाचगान,
वाद्ययंत्रो तथा नुपुरोना ध्वनिथी बधानुं मन मुग्ध थई रह्युं हतुं. अचानक एक पूर्वभवनो वैर लेवाने
ईच्छक देव व्यापारीनुं रूप धारण करी चक्रवर्तीने फळ भेट करीने कहे छे के “राजन्! आपेआवुं मधुर
फळ कदी पण खाधुं नहि होय.” राजा फळ खाईने बहुज प्रसन्न थयो, ने तेने पूछे छे के ‘भाई! आवुं
सुंदर स्वादिष्ट फळ क्यांथी लाव्यो?’ व्यापारी कहे “चालो राजन अमारा देशमां; आपने आवा घणांय
फळ खवडावीश.” जुओ रसना ईन्द्रियनी लोलुपताने लीधे चक्रीनो विवेक तो नष्ट थई गयो हतो. तेणे
विचार पण न कर्यो के चक्रवर्ती समान भोग उपभोगनी सामग्री कोने मळी शके छे! पण ते तो तीव्र
आसक्तिवश ए फळने खावामां संपूर्ण सुख मानतो हतो तेथी विचारवा लाग्यो के बधी सामग्री होवा
छतां आ फळनी मारे खामी न रहेवी जोईए.
जो ते धारत तो तेना अनुपम सेवकदेवो द्वारा अनुपम फळ मंगावी शकत, पण तेना हृदयमां ते
फळनो स्वाद चाखवानी लोलुपतानो एवो नशो चड्यो हतो के तेने अहींनी सर्व सामग्री फिक्की
लागती हती. सुभौम चक्रीए विचार कर्यो के हुं एकलो जईश तो केटलांक फळ खाईश! माटे कुटुंब
सहित जाउं. चक्रीए विशाल चर्मरत्न नामे वहाणमां स्त्री–पुत्रादि सहित समुद्रमां प्रयाण कर्युं. हवे देव
मनमां खूब प्रसन्न थई रह्यो हतो के एकला राजाने नहीं पण तेना सर्व परिवारने हुं डुबाडी दईश. देव
विचारतो हतो के जेमनी पासे हजारो देव सेवक छे, नवनिधि अने चौदरत्नो छे तेने मारी नाखवो
कठण छे.
सुभौम चक्री समुद्रनां तरंग उपर तरती नौकामां हास्यविलास करतो थको सुख सागरमां मस्त
थई रह्यो हतो. त्यां अचानक देवद्वारा चलावेल तोफानी पवनने लीधे वहाण डोलवा लाग्युं, चक्रीनुं
हृदय कंपवा लाग्युं, ते भयभीत थईने देवने पूछवा लाग्यो के हवे बचवानो कांई उपाय छे? पापी
राजाने पापनो उदय अने देवने दुष्ट बुद्धि उपजतां कह्युं के मध्य दरियामां बीजो तो कोई उपाय नथी,
पण आप अनादिनिधन नमस्कार मंत्र, अपराजितमंत्र,
णमो अर्हंताणं... छे तेने पाणीमां लखीने
पगथी भूंसी नाखो तो बधाय बधी शकशो.