: ४ : आत्मधर्म: २२९
मनुष्य जन्म अति दुर्लभ छे. मिथ्यात्व कषायमय जीवतर निःसार छे,
एवी दशामां जीवोए आत्मार्थि थई आळस–प्रमाद छोडी पोतानां हितने जाणवुं
जोईए, ते हित मोक्ष ज छे.
– ज्ञानार्णव, गा. ४६
जे धीर अने विचारशील छे, अतीन्द्रिय सुख (मोक्षसुख) (पोताना
आत्माथी ज उत्पन्न सुखने साचुं सुख कहे छे) ने ओळखीने तेने ज प्राप्त करवा
चाहे छे, तेओए मिथ्यात्व अने परमां सावधानी (–स्वमां असावधानी) रूप
प्रमाद छोडी आ मोक्षसुखमां ज सतत् परम आदर करवो जोईए.
–ज्ञाना० गा. ४७
नहि काल कला एकापि विवेक विकलाशयैः।
अहो प्रज्ञाधनैर्नेया नृजन्मन्यति दुर्लभे।।
अहो भव्यजीवो! आ मनुष्यजन्म महा दुर्लभ छे. वारंवार आवो
अवसर मळवो दुर्लध छे, तेथी बुद्धिमानोए भेदविज्ञानमां सावधान रहेवुं
जोईए. विवेक विचारशून्य थई काळनी एक कलाने पण व्यर्थ न जवा दे.
– ज्ञाना० गा. ४८
मिथ्यात्व पुण्य, पाप, रागद्वेष अज्ञानमय संसारने महान गहनवननी
उपमा छे. केमके सदाय दुःखरूपी अग्निनी जवाळाथी एकमेक छे, एवा संसारमां
ईन्द्रियाधीन सुख छे ते विरस छे. बाधा सहित छे, दुःखनुं कारण छे तथा दुःखथी
मळेलुं ज छे. अने जे काम अने अर्थ (धनादि) छे ते अनित्य छे तेथी तेना
आश्रये जीवन छे ते विजळीना जबकारा समान चंचळ छे. आम तेनी
विषमतानो खरेखर विचार करवावाळा, जे पोताना स्वार्थमां–सम्यग्दर्शन ज्ञान
चारित्रमां सावधान छे ते सुकृतिछे–सत्पुरुष छे, तेओ केवी रीते मोहने पामे?
कदापि नहीं.
– ज्ञाना० गा. ४९
बेहद सामर्थ्यवान “ज्ञ” स्वभाव
स्वभावने हद शी? आत्मानो ज्ञान–स्वभाव, शान्ति–धैर्य, वीर्य (बळ),
सुखादि स्वभाव बेहद ज छे, एवो हुं छुं, एनी असंग द्रष्टिपूर्वक–पूण ज्ञान
स्वभावी आत्माने साधनार आत्मार्थीने धैर्य–पुरुषार्थमां पण बेहदता होय छे.
एने एम न थई जाय के आत्माने साधवा माटे में घणुं कर्युं, घणुं सहन कर्युं, हवे
हुं थाकी गयो, तेने तो एम ज होय के कषाय हद बांध्या वगर, अटक्या वगर
मारे तो आत्माने साधवो ज छे. थाक लागवानो नथी पण नित्य अप्रतिहतभावे
उत्साह वधारतो ज जवानो छुं.