कारतक: २४८९ : प :
सम्यक् वात्सल्य गुणयुक्त ज्ञानीने शुद्धि फेलावनार निर्जरा
दिव्य महिमावंत पुरुषार्थ
(समयसार निर्जरा अधिकार गा. २३प उपर
पू. गुरुदेवना प्रवचन, ता. २१–४–६२, चैत्र वदी र)
जे मोक्षमार्गे “साधुत्रयनुं”
वात्सलत्व करे अहो!
चिन्मुर्ति ते वात्सल्ययुत
समकित द्रष्टि जाणवो.
जे धर्मीजीव मोक्षमार्गमां रहेला सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपी त्रण साधको (साधनो) प्रत्ये
(अथवा व्यवहारे आचार्य, उपाध्याय अने मुनि अने साधर्मी प्रत्ये) वात्सल्य करे छे ते
वत्सलभावसहित सम्यग्द्रष्टि जाणवो.
परमार्थ वात्सल्य एटले निज शुद्धातत्मत्त्वमां निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान उपरांत अंशे वीतरागदशानुं
वधवुं ते निश्चय वहालप ते सहित धर्मीजीवो प्रत्ये निर्मळ वहालप होय छे एवा शुभरागने व्यवहार
वात्सल्य कहेवामां आवे छे.
सर्वज्ञ वीतरागकथित तत्त्वार्थश्रद्धान ज्ञान अने आत्मानुभववान जीवने धर्मात्मा कहीए, तेओ
कदि नीचला कूळमां होय, बाह्यमां निर्धन देखाय छतां अज्ञानी पुत्रादि करतां तेमना प्रत्ये धर्मीजीवने
विशेष प्रेम होय छे. सांसारीक पदार्थो करतां साचा देव–शास्त्र–गुरु आदि धर्मना स्थान उपर विशेष
राग न होय तो तेने सम्यग्दर्शननी भूमिकानी खबर नथी. अहो! रत्नत्रयना धारक साधु तो वीतराग
परमेष्ठी छे. जेओ त्रिजगतवल्लभ छे, जेमना प्रत्ये चार ज्ञानना धारक श्री गणधरदेव तथा त्रण
ज्ञानना धारक ईन्द्रिो पण परम प्रीति–वात्सल्य करे छे. निरंतर गुण श्रेणि निर्जरा सहित वीतराग
चारित्रमां आरूढ थईने जेओ अंतर परमेश्वरपदमां रमे छे, अतीन्द्रिय आनंदामृतरसनाओडकार लई
अदभुत तृप्तिनो अभ्यास करी रह्या छे एवा मुनि परमेष्ठीने अमे नमीए छीए.
जेने पंचपरमेष्ठीओ प्रत्ये ओळख सहित प्रेम होय तेने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना आराधक
प्रत्ये बहुमान, भक्ति विनयनो भाव आव्या विना रहे नहीं. आहारदानना अवसरे भरत चक्रवर्ति
मुनिराजनो भेटो थाय तेनी राह जोवे छे, भावना भावे छे के धन्य घडी मने आवा संतो मळे, नवधा
भक्तिसहित आहारदान दउं. जेओ निरंतर स्वरूपमां एकाग्रताना बळवडे अंदरमां केवळज्ञान
निधानने खोदीने बहार काढवानो महान–अपूर्व उद्यम करी रहया होय छे, तेमने श्रमण कहेवाय छे.
पोताने परमपदनो बेहद महिमा वर्ते छे अने वीतरागता अने तेने साधनारा त्रणेकाळ टकी रहो एवी
भावना होवाथी वीतराग स्वरूपनी प्रसिद्धि करनारा–स्वरूपमां लीनतावडे सम्यग्दर्शन