Atmadharma magazine - Ank 229
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म: २२९
ज्ञान–चारित्रने सेवनारा, ज्ञानामृतभोजी (अतीन्द्रिय ज्ञानानंदने भोगवनारा) साधु परमेष्ठी मने
क््यारे मळे एवी भावना सहित भरत चक्रवर्ति महेल बहार नीकळी खूला पगे मुनिनी राह देखे छे.
जेना घरे छखंडनुं राज्य, नव निधान, अनेक हजार पद्मनी जेवी स्त्रीओ छे, जेना पुण्यनो ठाठ
साधारणने कल्पनामां पण न आवे एवा पुण्यनो सर्वथा नकार–उपेक्षा अने त्रिकाळी अकषाय
वीतराग स्वभावनो आदर ए गृहस्थदशामां पण निरंतर होय छे. भरतेश भावना भावे छे त्यां
आकाशमांथी चारण रुद्धिधारक मुनियुगल नीचे उतरे छे. जाणे चालता सिद्ध!! ... धन्य घडी...
केवळज्ञान निधानना खजाना खोलनार मुक्तिदूत मळ्‌या. रोमेरोम पुलकित थई, नम्रीभूत थई,
नमस्कारपूर्वक मुनिने प्रदक्षिणा दई महेलमां लई जाय छे, अतिशय उल्लास अने नवधा
भक्तिभावपूर्वक आहारदान दे छे. धर्म धर्मी विना होतो नथी. धर्म रत्नत्रयरूप वीतरागभाव छे, तेने
साधनारा प्रत्ये ज्ञानीने गायने वाछडा समान निस्पृह प्रेम आव्या विना रहेतो नथी अने त्यां
स्वसन्मुखतानी निःशंक अखंड रुचि धारावाही काम करे छे तेथी मार्गनी अप्राप्तिथी अज्ञानदशामां जे
कर्मनो बंध थतो हतो ते थतो ज नथी.
वात्सल्यपणुं एटले निस्पृह प्रीति भाव. जे जीव मोक्षमार्गरूपी पोताना स्वरूप प्रत्ये रुचि अने
प्रीति वाळो होय छे तेने साध्य जे निजकारण परमात्मारूप परमपद तेमां ज रुचि–आदर–आश्रय अने
उत्साहनी मुख्यता होवाथी, विभाव–पराश्रय–व्यवहारनी अंदरथी प्रीति नथी, आदर–आश्रय अने
भावना नथी, तेथी तेने संसारनुं फळ नथी. पण जेनी महिमा–मुख्यता, आदर अने आश्रय वर्ते छे
एवा स्वरूपमां ज तल्लीन रहेवानी भावना होवाथी तेनो सरवाळो तेना जीवनमां निरंतर वधतो ज
जाय छे, तेथी सम्यग्द्रष्टिने शुद्धिनी वृद्धि अने अंशे अशुद्धिनी हानिरूप निर्जरा ज छे, मार्गनी
अप्राप्तिथी थवा योग्य बंध थतो नथी. स्व सन्मुखताना बळ अनुसार स्वरूपमां शान्तिनो रस वधे छे
अने अज्ञानदशामां बंधायेला कर्म उदयमां आवीने खरी जाय छे. (२३प)
हवे प्रभावना गुणनी गाथा कहे छे–
चिन्मुर्ति मनरथपंथमां
विद्या रथरूढ घुमतो,
ते जिनज्ञान प्रभावकर
समकितद्रष्टि जाणवो, २३६
अहो!! वीतरागज्ञान प्रभावी–वीतरागी द्रष्टि सहित वीतराग चारित्रनी भावनावाळा–पोते
टकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे पोताना ध्रुवकारण ज्ञानस्वभावने कारण बनावनार होवाथी
पोताना ज्ञाननी समस्त शक्तिने प्रगट करवा, विकसाववावडे वीतराग विज्ञानरूपी रथमां आरूढ थयो
थको (अर्थात् जिनज्ञानरूपी रथने चालवानो मार्ग [सम्यग्रत्नत्रयी] तेमां भ्रमण करे छे ते
आत्मस्वभावी ज्ञाननी प्रभावना करनारो सम्यग्द्रष्टि जाणवो.
वीतरागद्रष्टिनो विश्राम–आधार एकला ध्रुव ज्ञायकभाव उपर छे. तेथी धर्मीने एकला
ज्ञायकभावमयपणाना कारणे शुद्धिनी वृद्धिरूप निर्जरा थाय छे. वच्चे बाह्य बीजुं बधुं काढी नाख्युं.
निमित्त–व्यवहारना भेदने गौण करी मोक्षमार्गमां तेनो अभाव गणी तेने द्रष्टिमांथी काढी नाख्या
अर्थात् प्रथमथी ज श्रद्धामां तेने मार्ग तरीके मानेल नथी.
आ रीते प्रथमथी ज धर्मी पोताना एकरूप ज्ञायकभावना आधारवडे निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान आनंद
वीर्य आदि शक्तिने प्रगट करवा–वीकसाववा–फेलाववा वडे प्रभावना उत्पन्न करतो होवाथी–
जिनवीतराग मार्गनी प्रभावनाथी प्रभावना गुणने धारण करवावाळो छे. आम स्वसामर्थ्यना बळना
भरोसें चढेलो चारित्र