: ८ : आत्मधर्म: २२९
पण शम (–अनंतानुबंधी कषायोनुं शमन अर्थात् स्वरूपना लक्षे असंख्य प्रकारना शुभाशुभभावो
प्रत्ये मननुं स्वभावथी ज शिथिल थवुं, संवेग–धर्म अने धर्मना फळमां उत्साह तथा पंच परमेष्ठी प्रत्ये
भक्ति निर्वेद–स्वरूपमां उत्साह सहित संसार, शरीर अने भोगो प्रत्ये वैराग्य. अनुकम्पा–निवेरबुद्धि
तथा आस्था, निंदा, गर्हा आदि, तेमां स्व सन्मुखताना बळथी जेटली परिणामोनी शुद्धता थाय छे
तेटलो निश्चयधर्म छे, तेनाथी तो निर्जरा ज छे, बंध नथी अने अने बाकी राग रह्यो तेनाथी बंध थाय
छे, धर्म नहीं.
आ ग्रंथमां आत्माश्रित कथन मुख्य होवाथी निःशंकित आदि गुणोनुं निश्चय स्वरूप
(स्वआश्रित स्वरूप) अहीं बताववामां आव्युं छे. तेनो टुंकामां सारांश आप्रमाणे छे–
(१) जे सम्यग्द्रष्टि पोताना पूर्ण ज्ञानस्वरूपमां तथा तेना ज्ञान–श्रद्धानमां निःसंदेह होय छे,
भयना कारणो मळे तोपण स्वरूपथी डगे नहि, संदेह युक्त न थाय, श्रद्धामां पूर्ण समाधानपणे
होवाथी, तेने निःशंकित गुण होय छे.
(२) कर्मना फळनी वांछा न करे पुण्य–पाप अने तेनुं फळ, संसार अने संसारनुं कारण
(मिथ्यात्व तथा शुभाशुभ रागादि) तेनी वांच्छा न करे तथा अन्य वस्तुना धर्मोनी [जगतना
मानेला ईष्ट–अनिष्ट सन्मान–अपमान सोनुं–पाषाण. रोग–निरोग वगेरे पुदगलना धर्मो छे एवा
कोई धर्मोनी] ईच्छा ज्ञानीने नथी. चारित्रनी कमजोरीथी क्षणिक नबळाई जेटली अल्प ईच्छा होय छे
पण तेने कोई ईच्छानी ईच्छा नथी. नित्य स्वभावना संतोषने चुकीने ईच्छा नथी. बेहद सुख
स्वभावनी सबळ द्रष्टिना जोरे अल्प नबळाई, ईच्छानो कर्ता, भोकता के स्वामी थतो नथी. तेथी
भेदज्ञाननी अधिकतावडे ते ज्ञेयपणे ज्ञाननी वृद्धिनुं निमित्त बने छे.
सर्व विभावनो नकार करनार द्रष्टि अने ईच्छाना अभावरूप स्वभावना जोरे नबळाईथी
थती ईच्छा पण निर्जरानुं निमित्त बने छे. शुभव्रतादिनी पण ईच्छा नथी, मोक्षनी ईच्छा पण
सम्यग्द्रष्टिने नथी–एवो निःकांक्षित्वगुण होय छे.
(३) मलिन पदार्थ, कोई क्षेत्र अने अति उष्णशीतऋतुनो काळ देखीने ग्लानि न करे, जड
स्वभावनो ज्ञाता रहे छे, प्रतिकूळ देखी हाय हाय करतो नथी. आम केम के एम ज होय दिगम्बर
मुनिदशामां शरीरने मलिन देखी जराय ग्लानि न आवे. असंख्य प्रकारना काम क्रोधादि विकल्पोथी
अतिक्रान्त अने निर्विकल्प श्रद्धा ज्ञानमां आरूढ, आत्माथी ज उत्पन्न अतीन्द्रिय ज्ञान आनंदवडे तेओ
महा सुखी छे. वारंवार छठा सातमा गुणस्थानमां झुलनार मुनि होय छे मुनिना शरीरमां मलीनता,
अस्नानता देखी दुर्गंछा न करवी ते व्यवहार अग्लानता छे अने ज्ञाता स्वभाव प्रत्ये अरुचि न थवा
देवी, निज परमपदमां परम प्रेम रहेवो ते निर्विचिकित्सा नामे अंग छे.
४. स्वरूपमां तथा हेय–उपादेय आदि प्रयोजन आदि प्रयोजन भूत तत्त्वमां मूर्ख न होय,
स्वरूपने यथार्थज जाणे ते अमूढत्व अंग छे. शास्त्रमां अनेक अपेक्षाथी सूक्ष्म निरूपण आवे अने
बुद्धिनी मंदताथी न समजाय तो हेय उपादेयनी भूल थवा न दे. अन्यमतना कल्पित तत्त्वो छे एम
निर्धार होवाथी तेना देव–गुरु–शास्त्रमां सत्य हशे? थोडुं तो सत्य हशे ने? एम न माने. केमके एक
शेर दूधमां जरा झेर पडतां तेमां दूधनो गुण कोई प्रकारे रहेतो नथी. तेम जेना मतमां हेय, ज्ञेय अने
उपादेय तथा देव, शास्त्र, गुरु, आदिनुं स्वरूप अन्यथा छे तेनी कोई वात प्रमाणभूत न भासे. गुरु
केवा हशे? सग्रँथ के निग्रँथ? वस्त्रपात्रवाळा पण जैन गुरु होय तो शुं? अन्य मतमां महान गुरु
थई गया छे एवी वातो वांची अथवा सांभळीने भूल न थवा दे. अन्य मतमां पण साची श्रद्धा,
आत्मज्ञान अने चारित्रवान हशे तो, एम भ्रम