आत्मा, ज्ञानने देह ज नथी, तो तेने पुद्गलमय आहार केम होय एवा अर्थने स्पष्ट करवा गाथा
कहे छे.
अहीं वात नथी.) आहार तो मूत्तिक छे कारण के पुद्गलमय छे. जे परद्रव्य छे ते ग्रही–छोडी
शकातुं नथी. आत्मामां भले प्रायोगिक एटले अशुद्धभाव हो के वैस्त्रसिक (स्वाभाविक शुद्ध)
भावहो, एवो ज आत्मानो गुण छे एटले के परनुं कांई करी शके, ग्रहे छोडे एवो कोई गुण
आत्मामां नथी.
आत्मा समजवो केमके अभेद अपेक्षाथी लक्षणमां ज लक्ष्यनो व्यवहार कराय छे. ए रीते आत्माने
ज्ञान ज कहेता आव्या छे.
ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक््य छे. अमूर्त्तिकने मूत्तिक आहार होय नहीं; तेथी ज्ञान (आत्मा) आहारक
नथी. माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी. वळी जडकर्म–नोकर्मादिरूप आहार मूर्त्तिक छे; आत्मा सदा
अमूर्त्तिक छे, अरूपी, अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे तेथी निश्चयथीय के व्यवहारथी जीव परनुं कांई करी शके
नहीं. में खाधुं, पीधुं, लीधुं, दीधुं, में आहार छोडयो–ए असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. पण
तेनोअर्थ–एना कार्यने अने परद्रव्यने जीव ग्रही शकतो ज नथी के छोडे. जीव हुं ज्ञानमय छुं ए भान
भूलीने ममता करे, हुं तेने लई शकुं छुं वगेरे माने अर्थात् ज्ञानने भूलीने ईच्छा करे पण कोई जीव
परनुं कांईपण करी शकतो नथी; मात्र ए जातनो राग रागीजीवने आवे छे. एम बताववा परना
ग्रहण–त्यागनो कर्त्ता कहेवो ते कहेवामात्र छे. जेम भींत उपर भेंस, गाय आदि पशुनुं चित्र छे ते
चित्रनी गाय निश्चयथी के व्यवहारथी