Atmadharma magazine - Ank 230
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म: २३०
वीतरागता माटे ज छे.
निमित्त तथा व्यवहारना कथनने तेना शब्द अनुसार ज अर्थ मानी ले तेने निश्चय के
व्यवहारनयनुं ज्ञान ज नथी, पण विरोधभाव छे. ज्ञानने देहनी शंका केम कराय? ज्ञान एटले
आत्मा, ज्ञानने देह ज नथी, तो तेने पुद्गलमय आहार केम होय एवा अर्थने स्पष्ट करवा गाथा
कहे छे.
अन्वयार्थ:– ए रीते जेनो (भेदज्ञानीनो) आत्मा अमुर्त्तिक छे, ते खरेखर आहारक नथी;
(अज्ञानीने निमित्त अनेराग उपर ज द्रष्टि छे, तेथी ते भले माने के हुं अत्यारे मूत्तिक छुं तेनी
अहीं वात नथी.) आहार तो मूत्तिक छे कारण के पुद्गलमय छे. जे परद्रव्य छे ते ग्रही–छोडी
शकातुं नथी. आत्मामां भले प्रायोगिक एटले अशुद्धभाव हो के वैस्त्रसिक (स्वाभाविक शुद्ध)
भावहो, एवो ज आत्मानो गुण छे एटले के परनुं कांई करी शके, ग्रहे छोडे एवो कोई गुण
आत्मामां नथी.
माटे जे विशुद्ध आत्मा छे (ज्ञानस्वभावी छुं एम अनुभवनारो आत्मा छे) ते जीव अने
अजीव द्रव्योमां कांई पण ग्रहण–त्याग करुं छुं, करी शकुं छुं एम मानतो नथी. अहीं ज्ञान कहेवाथी
आत्मा समजवो केमके अभेद अपेक्षाथी लक्षणमां ज लक्ष्यनो व्यवहार कराय छे. ए रीते आत्माने
ज्ञान ज कहेता आव्या छे.
टीका–ज्ञान एटले आत्मा कांईपण (जरापण) परवस्तुने तथा तेना कार्यने ग्रहतुं नथी तथा
छोडतुं नथी. कारण के विभावना सामर्थ्यरूप ज्ञानवडे तेमज स्वाभाविक गुणना सामर्थ्यथी परद्रव्यनुं
ग्रहवुं तथा छोडवुं अशक््य छे. अमूर्त्तिकने मूत्तिक आहार होय नहीं; तेथी ज्ञान (आत्मा) आहारक
नथी. माटे ज्ञानने देहनी शंका न करवी. वळी जडकर्म–नोकर्मादिरूप आहार मूर्त्तिक छे; आत्मा सदा
अमूर्त्तिक छे, अरूपी, अतीन्द्रिय ज्ञानमय छे तेथी निश्चयथीय के व्यवहारथी जीव परनुं कांई करी शके
नहीं. में खाधुं, पीधुं, लीधुं, दीधुं, में आहार छोडयो–ए असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. पण
तेनोअर्थ–एना कार्यने अने परद्रव्यने जीव ग्रही शकतो ज नथी के छोडे. जीव हुं ज्ञानमय छुं ए भान
भूलीने ममता करे, हुं तेने लई शकुं छुं वगेरे माने अर्थात् ज्ञानने भूलीने ईच्छा करे पण कोई जीव
परनुं कांईपण करी शकतो नथी; मात्र ए जातनो राग रागीजीवने आवे छे. एम बताववा परना
ग्रहण–त्यागनो कर्त्ता कहेवो ते कहेवामात्र छे. जेम भींत उपर भेंस, गाय आदि पशुनुं चित्र छे ते
चित्रनी गाय निश्चयथी के व्यवहारथी