: १४ : आत्मधर्म: २३०
द्रव्य जुदा न रहे–ए अनादि अनंतकाळ माटे अबाधित सिद्धांत छे.
वस्तु सतपणे छे के नहीं? छे, तो ते पोताथी ज छे, परथी नथी, परना कारणे नथी. माटे पोताथी
ज नित्य टकीने निरंतर नवी नवी अवस्था पोतामां ज उत्पन्न करे छे, ने जुनी दशा बदले छे–ए पर्याय
स्वभाव पण दरेकने पोताथी ज छे, परथी नथी आम स्वतंत्रता होवा छतां न माने, न जाणे ते बे द्रव्योने
जुदा मानतो नथी, कोईने स्वतंत्र मानतो नथी. दरेक पदार्थ परथी पृथक छे अने पोतपोताना
द्रव्यस्वभाव, गुणस्वभाव अने पर्याय स्वभावथी सतपणे छे–ए सिद्धांत जाणे तो बधा विवाद मटी जाय.
प्रश्न:– जीव द्रव्यद्रष्टिथी स्वतंत्र छे पण वर्तमान पर्यायमां तो परतंत्र छे ने?
उत्तर:– ना, निजशक्तिथी परतंत्रभावे पोते ज परिणमे छे. जीव संसारदशामां विकारी पर्याय पणे
कर्ता, कर्म (कार्य), करण संप्रदान अपादान अने आधार ए छए कारक (कारण) शक्तिथी स्वतंत्र छे
तेना अज्ञानवशे परतंत्रता मानी जीव व्यर्थ खेदखिन्न थाय छे. एम प्रथम पर्यायमां स्वतंत्रता न माने
तेने क्षणिक विकारथी भिन्न त्रिकाळी ज्ञानस्वभावने स्विकारवानी ताकात नथी. संयोग, निमित्त तेना
स्थानमां होय छे, पण तेनाथी उपादानमां कार्य माननारने बे द्रव्यनी एकताबुद्धिरूप मोटो भ्रम छे.
सर्वज्ञदेव फरमावे छे के आत्मा शुभाशुभविकार–वासना करे तो करो, परमां कर्त्ता, भोक्ता
स्वामी छुं एम मानी शके छे, पोतानी दशामां ज्ञान–अज्ञान, विकार–अविकारीभाव करवानी ताकात
राखे छे, पण परमां कांईपण करवानी ताकात (सामर्थ्य) कोई आत्मामां नथी. त्रणकाळमां त्रणलोकमां
परवडे कोईनुं कार्य बनी शकतुं नथी.
संयोगद्रष्टिवाळा निमित्तने खरेखर कर्त्ता माने छे. अने कहे छे के जुओ, निमित्तनुं सामर्थ्य!
भगवान महावीरने केवळज्ञान थयुं छतां ६६ दिवस सुधी वाणी न छूटी अने गौतम आव्या त्यारे
वाणी छूटी माटे निमित्तनी राह जोवी पडे छे, निमित्त विना कार्य थाय नहीं तो ए वात त्रणेकाळे जूठी
छे. निमित्तने कारण क्यारे कहेवाय के उपादान (निजशक्ति) स्वयं कार्यरूपे परिणमे तो ज निमित्तने
उपचारथी कारण कहेवाय. निमित्त तेनी पोतानी ज योग्यताथी तेना काळे आवे छे ते पण तेनी
उपादाननी योग्यताथी नियमितपणे वर्ते छे.
ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मना परमाणु बंधाय तेमां प्रकृति, स्थिति, अनुभाव अने प्रदेशनी
रचना ते परमाणुना आधारे तेनी उपादाननी योग्यताथी थाय छे; जीव तेनो कर्त्ता कोई प्रकारे नथी
छतां कर्त्ता कहेवो ते व्यवहारनयनुं कथन छे.
अहीं तो एम बतावे छे के आत्मा जड कर्मनो कर्त्ता, भोक्ता तो नथी पण पोतानी पर्यायमां
पोतानी भूलना प्रमाणमां जेटला राग उत्पन्न थाय तेटला ज प्रमाणमां नवा कर्म बंधाय छे, ज्ञान
संबंधी विरोध भाव (कषायभाव) करे तेटलुं ज्ञानावरणीयकम बंधाय, मिथ्यात्वभाव जेवो तीव्र मंद
करे तेटला प्रमाणमां दर्शनमोहकर्म बंधाय, अने जेवा क्रोध, मान, माया, लोभ करे तेटलुं चारित्रमोह
नामनुं जड कर्म बंधाय
–ए व्यवहारकथन निमित्त नैमित्तिकनुं ज्ञान करावी, पराश्रयरूप मूर्खता छोडाववा माटे छे पण
परद्रव्य आदि तेने हेरान करे ने तेनी आधीन जीवने रागद्वेष, सुखदुःख थाय एम मिथ्याश्रद्धा करवा
माटे शास्त्रनुं कथन नथी.
व्यवहारथी कथन आवे के चारित्रमोहकर्मना उदय काळे जीवमां विकार थाय–एनो अर्थ एम
नथी के जडकर्म जीवने बगाडे छे पण जीव पोते ज पोतानी पर्यायथी पलटे छे. दरेक समये पोतानी
योग्यताथी १०० टका स्वतंत्रपणे नवीनवी पर्यायरूप कार्य करे छे.