: १६ : आत्मधर्म: २३०
परने छोडे कोण? लावे, ग्रहण करे कोण? ए तो निमित्तना कथननी रीत छे. आत्मा अमूत्तिक छे,
मूर्त्तिक नथी, माटे पुद्गळमय देह अने आहारनो कर्ता, भोक्ता के स्वामी नथी. व्यवहारकथनने
निश्चयनुं कथन मानी लेनार सत्य समजवाने लायक नथी व्यवहारथी लई शकाय, छोडी शकाय छे–एम
माननारने वस्तुस्वरूपनो निर्णय ज नथी. अजीवमां ज्ञान नथी माटे जीवना आधारे तेनुं कार्य थाय–
एम माननार जीव तत्त्वने शक्तिरहित माने छे.
जीव सदा ज्ञानरूप छे, सहज ज्ञानस्वभावी छे, पोताना ज्ञानमात्र भावनो कर्त्ता, भोक्ता
स्वामी छे आम वस्तुस्वरूप छे तेनाथी विरुद्ध अज्ञानी माने छे, पण कर्म, नोकर्म, शरीरादिनुं ग्रहण
त्याग आत्मा करी शक्तो नथी. अनादिकाळथी पोताने भूली पुण्यपापना भावो कर्या छे ते
अपेक्षाए कहे छे के जीव शुभाशुभ विभावरूपे, मिथ्यात्वरूपे परिणमे, पण परनी क्रियानो कर्त्ता कदी
थयो नथी.
दिगंबर जैन मुनिनो वेष धारण करी माने के में परने छोडयुं, हुं शरीरनी क्रिया करी शकुं छुं.
मोरपींछी मे पकडी छे. एम पर द्रव्यनी अवस्थामां पोतानुं कार्य माने तेने स्वतंत्र तत्त्वनी खबर
नथी, जैन धर्ममां शुं विशेषता छे तेनी तेने खबर नथी.
एक द्रव्यमां बीजा द्रव्यनो सर्वप्रकारे अभाव होवाथी अनादिथी आज सुधी कोई पदार्थ परनुं
कांई करी शक्या नथी, परवडे कोईनुं ग्रहण त्याग किंचित् मात्र थतुं नथी. आत्मा तो सदा अमूर्त्तिक
ज्ञानस्वरूप छे तेथी ज्ञानने देहनी शंका न करवी.
द्रव्यसंग्रह नामे प्राचिन ग्रंथ छे तेनी टीकामां ब्रह्मदेवसूरिए खुलासो कर्यो छे के
व्यवहारनयथी आत्माने पुद्गळकर्मनो कर्त्ता कह्यो ते तो ते संबंधी रागनुं कर्त्तापणुं अशुद्ध
निश्चयनयथी बतावता कह्युं छे पण हाथ पग चलाववा आदि परनी क्रियानो कर्त्ता जीव छे–एवो
तेनोअर्थ कोई प्रकारे न समजवो. आत्मा आंख न चलावी शके, पांपण फरे ते तेनी शक्तिथी
चाले छे. अज्ञानीने संयोगमां एक्ताबुद्ध होवाथी परमां कर्त्तापणानो अहंकार करे छे. निमित्त
कर्त्ताना व्यवहारकथनने निश्चयनयनुं कथन मानी मिथ्यात्वने ज सेवे छे. में लीधुं, में दान दीधुं,
मारा वडे समाजना आटला काम थया एम जीव फोगट कल्पना करे छे.
भावार्थ– आत्मा तो सदाय अमूर्त्तिक ज्ञान छे तेथी आत्माने ज्ञान ज शरीर छे, परमार्थे
आत्माने जड शरीर नथी तो मूर्त्तिक आहार आदि परने ग्रहे छोडे क्यांथी? वळी आत्मानो एवो
ज स्वभाव छे के ते पर द्रव्यने तो्र ग्रहतो ज नथी स्वभावरूप परिणमो के विभावरूप परिणमो,
सदा पोताना ज परिणामनां ग्रहण त्याग छे, परनुं ग्रहण त्याग जरा पण नथी,
दरेक वस्तु स्वतंत्र कारण कार्य सहित छे आवुं सत्य सर्वज्ञना आगममां स्पष्ट छे.
स्वाश्रितद्रष्टि वीतरागता अने यथार्थतानी वात भाग्य योगे सांभळवा मळे छतां अपूर्वपणे
आंतरो पाडीने लक्षमां लेवा मागतो नथी ते जीव भगवानना उपदेशने लायक केम गणाय?