Atmadharma magazine - Ank 230
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४८९ : :
मोक्षमार्गरूपी कार्य देव–शास्त्र–गुरु अने समवसरणमां नथी, तेना वडे तारूं कार्य नथी.
दर्शनमोहनो क्षय पोतानां द्रव्यस्वभावनुं आलंबन लेवाथी थाय छे. ते जातनो अस्तिमां सवळो
पुरूषार्थ करे तो केवळी, श्रुतकेवळीने निमित्त कहेवाय छे. निमित्त छे माटे उपादानमां कार्य छे एम नथी.
परने कारण कहेवुं ते उपचार छे, व्यवहार छे, तेथी ते खरूं कारण कहेवुं ते उपचार छे, व्यवहार छे,
तेथी ते खरूं कारण नथी. अनंतगुणसंपन्न स्वद्रव्य उपर द्रष्टि देवाथी निर्मळ पर्यायरूपी कार्य छे एवी
शक्ति आत्मामां छे: पण परनुं अने रागनुं कारण–कार्य थाय एवी कोई शक्ति आत्मामां नथी.
शुभराग कारण, व्यवहार रत्नत्रय कारण अने निश्चयरत्नत्रय कार्य एवुं आत्मामां नथी. अहो! तारी
स्वाधीनतानी अजब लीला छे. जो मुक्तिना उपायनी शरूमां ज स्वाधीनतानी श्रद्धा अने सवळो
पुरूषार्थ न होय तो तेने मुक्ति शुं, स्वतंत्रताशुं, हितनुं ग्रहण अने अहितनो त्याग शुं, सर्वज्ञ
वितरागे शुं कह्युं तेनी कांई खबर नथी. संयोगद्रष्टिवाळो स्वतंत्रता मानी शके नहीं. आत्मा ईच्छा करे
तो शरीर चाले, शुभराग करे तो वीतरागता थाय–एवी कोई शक्ति आत्मामां नथी.
शरीरनी क्रिया होय, सामे पदार्थ होय, ईन्द्रियो होय, प्रकाश होय तो आत्माने ज्ञान थाय एम
नथी. पूर्वनी पर्याय कारण अने वर्तमान पर्याय तेनुं कार्य एम नथी, पर्यायमांथी पर्याय आवती नथी,
परपदार्थ कारण अने सम्यग्दर्शन कार्य एम नथी. परद्रव्य, क्षेत्र, काळ अने परभाव कारण
अनेआत्मामां शुद्धता अथवा अशुद्धता थवी ते कार्य एम नथी. व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप
शुभराग कारण अने निश्चय रत्नत्रय काय एवुं कारण–कार्य आत्मामां त्रणकाळमां नथी. प्रथम
व्यवहार पछी निश्चय एम नथी. लसण खातां खातां कस्तुरीनो ओडकार आवे एम न बने, तेम राग
करतां करतां वीतरागता न बने.
एक समयमां अनंत शक्तिनुं निधान हुं पूर्ण ज्ञानघन छुं एमां द्रष्टि होवाथी आत्मा ज कारण
अने तेनी निर्मळ पर्याय कार्यरूपे प्रगट थाय छे एवी शक्ति आत्मामां छे. पण पोतानी पर्याय कारण
अने शरीरमां, परपदार्थमां हलनचलन आदि फेरफार थाय, जीवना कारणे बीजामां पर्याय उत्पन्न थाय
एवो कोई गुण आत्मामां नथी. पोताथी ज पोताना आधारे पोतानुं कार्य थाय, परथी पोतानुं कांई न
थाय, पोते परनुं कांई करवा समर्थ न थई शके एवी शक्ति आत्मामां छे. आ उपरथी एम समजवुं के
आत्माने त्रणेकाळ परवस्तुना कारण वगर ज चाली रह्युं छे, पोताना कार्य माटे परद्रव्य, परक्षेत्र,
परकाळनी जरूर पडे एवुं एनुं स्वरूप नथी. छतां तेनाथी विरूद्ध माने तो तेनो मिथ्या अभिप्राय ज
अनंत दुःखरूप संसारनुं कारण थाय छे. ज्यां मिथ्यात्व छे त्यां पराश्रयनी रुचि रागनी रुचि होय ज
छे, तेथी तेने कोई रीतेरागनो अभाव थाय नहिं. अभिप्रायमां निरंतर तीव्र रागद्वेष रहे छे आम
युक्तिथी, परीक्षावडे, वस्तुनी मर्यादा जाणी, पर साथे मारे कोई प्रकारे कारण–कार्य नथी. हुं तो परथी
भिन्न अने पोतानी अनंत शक्तिथी अभिन्न छुं–एम निर्णय वडे परमां कर्ता, भोकता, स्वामीपणानी
श्रद्धा छोडी, सर्वथा रागनी अपेक्षा करनार ज्ञायक स्वभाव सन्मुख द्रष्टि करवी. स्वसंवेदन ज्ञान अने
स्वमां लीनता करवी ते ज सुखी थवानो साचो उपाय छे.
आचार्यदेवे कह्युं छे के सुखी थवाना उपाय माटे बाह्य साधन शोधवानी व्यग्रताथी जीवो
नकामा परतंत्र थाय छे. परतंत्र थवानी कांई जरूर नथी केमके दरेक आत्मामां अकार्यकारणत्व शक्ति
सदाय विद्यमान छे, जेथी पोताना कार्य माटे अन्य कारणोनी अपेक्षा नथी, आत्मा परने कारण थाय
तो परद्रव्य परिणमन करे एम पण नथी. वस्तु सच्चिदानंद प्रभु देहथी भिन्न छे. मन, वाणी,
शुभाशुभ विकल्पथी रहितअने ज्ञानानंद परिपूर्ण छुं एम सम्यग्द्रष्टिनी