Atmadharma magazine - Ank 231
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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पोष : २४८९ : ११ :
विचारवुं के अज्ञानी तो समभाव लक्षण धर्मनो नाश करे छे् मारुं कांई करी शकतो नथी. मारो
स्वसन्मुख ज्ञातास्वभावी धर्म अने तेमां धैर्यरूप धर्म तेनो नाश ते करी शकवा समर्थ नथी, ते तो ज्ञेय
छे तेमां अनिष्टपणुं मने भासतुं नथी.
ज्ञानी एम न विचारे के अरे! मारे केटलो काळ प्रतिकूळता सहनकरवी पण बेहद
ज्ञातास्वभावनी धीरजने चूक्तो नथी. में ज पूर्वे पापरूपी मुर्खाई करेली, ते काळे पापकर्म बंधाएलुं,
आ दुर्वचनादि, उपसर्गादि तेना फळ छे. आ ज्ञेयो तो मारो ज अपराध हतो तेम ज्ञान करावे छे, बाकी
अन्य तो निमित्त मात्र छे, ईत्यादि भेदविज्ञान सहित चिन्त्वन करतां उपसर्गादिना निमित्तमां
ज्ञातास्वरूपनी अरुचिरूप क्रोध तथा रागद्वेष उत्पन्न न थाय ए रीते समता भावने धारण करे छे,
ज्ञाता कहे छे.
अज्ञानी गमे तेवुं बहारमां सहन करतो भले देखाय पण तेने साची क्षमा होती नथी.
बंधादिकना भयथी तथा स्वर्ग–मोक्षनी ईच्छाथी वा क्रोध करीश तो शास्त्रमां लख्युं छे के पापकर्मो
बंधाशे माटे ते क्रोधादि करतो नथी. पण त्यां ज्ञातास्वभावनी अरुचि अने रागनी रुचि होवाथी
क्रोधादि करवानो अभिप्राय तो गयो नथी. जेम कोई राजादिकना भयथी वा महंतपणाना लोभथी पर
स्त्री सेवतो नथी, तो तेने त्यागी कही शकाय नहीं. ते ज प्रमाणे आ पण क्रोधादिनो त्यागी नथी.
अभ्यासथी कोई ईष्ट अनिष्ट न भासे त्यारे स्वयं क्रोधादि उपजता नथी अने त्यारे ज साचो धर्म
थाय छे. (मोक्षमार्ग प्र० पृ. २३२)
(३) हवे उत्तम मार्दव धर्मने कहे छे :–
उत्तमणाय पहाणो उत्तम तवयरण करण सीलोवि ।
अप्पाणं जो हीलादि मदव रयणं भवे तस्स ।। ३९४।।
अर्थ :– जे मुनि उत्तमज्ञानथी तो प्रधान होय, उत्तम तपश्चरण करवानो जेनो स्वभाव होय
तोपण जे पोताना आत्माने मदरहित करे, गर्व न करे ते मुनिने उत्तम मार्दवधर्म रत्न होय छे. ज्ञानीने
पोताना अविनाशी चिदानंदी पूर्णस्वभावनो ज महिमा वर्ते छे, स्वसन्मुखताना बळथी अंशे तेटलो
वीतरागी धर्म प्रगटतां अरे! हुं कोनाथी मान करुं? कोनुं अभिमान करुं? सकळ शास्त्रने जाणनार
होय तोपण ज्ञाननो मद न करे; त्यां आम विचारे के माराथी मोटा अवधि, मनःपर्ययज्ञानी छे,
केवळज्ञानी तो सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी छे, हुं कोण छुं? अति अल्पज्ञ छुं, तुच्छ छुं एम निर्मानता ज धारण
करे छे, अने आठ प्रकारना मद (–जाति, लाभ, कूळ, रूप, तप, बल, विद्या अने अधिकार मद) ने
उत्पन्न थवा देता नथी. पूर्ण ज्ञानस्वभावनो विनय करे छे. ज्ञातास्वभावमां सावधान थई समतावडे
पोताना आत्माने नम्र बनावे छे, तेनुं नाम अविकारी शान्ति रूप विनय अने मानादि विकारनो
पराजय–एनुं नाम उत्तम मार्दव धर्म छे.
पोताने उत्कृष्ट तप होय तोपण मद न थवा दे. जेम मंदिर उपर मणिमय सुवर्णनो कळश
चडावी शोभा वधारे छे तेम अखंडित प्रताप संपदाथी आत्मामां स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा एकाग्रतावडे
अतीन्द्रिय आनंदना उछाळा आवे एवी चैतन्यनी परम महिमा वधारे ने रागादि विकारनी तुच्छता
थई जाय, उत्पत्ति न थाय एवी चैतन्यनी महिमा छे.
जेम समुद्र मध्यबिंदुथी उछळीने भरती लावे छे तेम आत्मामां बेहद पूर्ण ज्ञानानंदमां द्रष्टि,
ज्ञान अने एकाग्रताना बळथी आनंदनी भरती आवे, ए रीते तेना आदरवडे अनित्य क्रोध तथा
मानादि मद उत्पन्न न थवा दे एनुं नाम सम्यक्चारित्रनो उत्तम मार्दव धर्म छे.