पोष : २४८९ : १प :
कारणे, जड कर्मना कारणे, संयोगना कारणे तने रागद्वेष, सुख दुःख के भूल नथी. परने कारणे मारूं
कार्य नथी एम नक्की कर्या पण क्षणिक विकार, अधुरी पर्याय जेवो ने जेटलो हुं नथी, पण त्रिकाळ
निर्मळ ज्ञानानंदथी भरेलो ते हुं छुं एम स्वसन्मुख ज्ञान द्वारा मारो ध्रुव स्वभाव विभावथी पृथक छे,
मारामां बेहद सामर्थ्य छे एनुं भान करी शकाय छे पछी ज भेदनो आश्रय छोडी स्वरूपना
आलंबनथी निर्विकल्प सम्यग्दर्शनरूपी धर्म शरू थई शके छे. सम्यग्दर्शननुं ध्येय त्रिकाळी द्रव्य–गुण
अने शक्तिरूप ध्रुवशक्तिरूप अखंड वस्तु छे; तेमां अने तेना आश्रयथी तो मिथ्यात्व, पुण्य पाप
विकार उत्पन्न थतां ज नथी. द्रव्यस्वभाव ज चैतन्यमय निर्मळ पर्यायनुं कारण छे पण पुण्य पापरूप
विभावनुं कारण नथी; अने तेना आश्रये उघडेल साधकभाव पण विभावनुं कारण नथी. पोताना
चैतन्य भावनुं अभान–विभ्रम ज पुण्य पाप अने मिथ्यात्वरूपी संसारनुं कारण छे.
टीकामां छेवटे एम कह्युं के जे पोताना अपराधथी पोतानीय पर्यायमां अनादि अज्ञानथी थती
शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयनी प्रवृत्तिने प्रथम निर्मळ श्रद्धा ज्ञान द्वारा दूर करीने अर्थात् पोताने
निश्चय सम्यग्दर्शनादिरूपे परिणमावीने अनात्मा (आस्रव) नाअभाव स्वभावपणे पोताने
अनुभवीने स्वावलंबी कर्यो तेनुं नाम पर समयथी–परभावथी निवृत्तस्वरूप अने स्वसमयमां
(निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान, शान्तिमां) प्रवृत्तिरूप धर्म छे–ए वडे पूर्ण विज्ञानघन स्वभावनी प्राप्ति थाय छे–
एम प्रथमथी ज आवो आत्मा ज्ञानलक्षण वडे प्रतीति सहित अनुभवमां आवे छे.
जडकर्म मारग आपे तो शुद्धात्मानी प्राप्ति थाय, दर्शनमोह कर्म टळे तो धर्म थाय एम नथी;
अमुक संयोग, अमुक काळ, अने तीर्थंकर भगवान बिराजता होय ते क्षेत्र मळे तो आत्माने धर्म थाय
एम नथी. निमित्तनी राह जोवी पडती नथी. स्वाश्रयनी द्रष्टिथी जाग्यो त्यां सर्व समाधानरूप पोतानो
आत्मा ज पोताने ध्रुव शरणरूप भासे छे. चैतन्यना स्वरूपमां विवाद नथी. स्वरूपनी रुचि अने
स्थिरता माटे परना आलंबननी अपेक्षा नथी.
दर्शन–ज्ञान–चारित्रना परिणाम स्वरूप मोक्षमार्ग छे ते स्वसमयरूप परिणमन प्राप्त करीने,
जेमां कोई ग्रहण त्याग नथी एवा साक्षात् समयसाररूप, परमार्थरूप, ज्ञानानंद एकलो आत्मा
प्राप्तनी प्राप्तिरूप थाय छे.
विज्ञानघन स्वभावमां तथा तेना अनुभवमां, हुं विज्ञानघन छुं एवो विकल्प नथी. तेमां परनुं
अथवा रागादिनुं ग्रहण त्यागनथी, तथा स्वरूपने ग्रहण करूं एवो विकल्प पण नथी. आ सर्व
विशुद्धज्ञाननो अधिकार छे ते विशेष स्पष्टपणे समयसार (शुद्धात्मा) ने बतावे छे.
द्रव्य, गुण तो नित्य शुद्ध छे. पण शुद्ध द्रष्टि द्वारा भेदने गौण करीने सामान्य एकरूप
स्वभावनो आश्रय करवामां आवे पछी प्रगट पर्यायमां विशेष शुद्धतारूपे परिणमनद्वारा स्वरूपमां
निश्चल थयो त्यारे चारित्र अपेक्षामां पण साक्षात् समयसार स्वरूप, परमार्थरूप, निश्चळ रहेला, शुद्ध,
पूर्ण ज्ञानने (पूर्ण आत्माने) देखवुं थवुं.
मोक्षमार्गनी आदि, मध्य, अंत (पूर्णता) मां निश्चयश्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रतारूप आत्मअवलोकन
ज कार्यकारी छे; त्यां देखवुं त्रण प्रकारे छे:–
(१) शुद्धनयनुं ज्ञान करी पूर्ण विज्ञानघन आत्माना स्वभावनो निश्चय करी स्वानुभूतिद्वारा
पूर्ण ज्ञान स्वरूपनुं श्रद्धान करवुं ते पहेला प्रकारनुं देखवुं छे. मिथ्या अभिप्राय रहित, रागना आश्रय
रहित, भेद ज्ञानद्वारापूर्ण ज्ञानघन एकरूप वस्तु छुं एमां झुकाव करी पूर्ण ज्ञानघन उपर ध्येय रहेवुं ते
शुद्धनयद्वारा निर्विकल्प देखवुं तो अविरत आदि अवस्थामां पण होय छे, निश्चय मोक्षमार्ग माटे
व्यवहार जोईए एम