Atmadharma magazine - Ank 231
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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पोष : २४८९ : १७ :
छोडी दईए अने व्यवहारनी–निमित्तनी वात आवे तेनो विस्तार करीए. पण दिगंबर संतो अने
प्राचीन पंडितजीए व्यवहारनयना आश्रयनुं फळ संसार छे एम स्पष्ट जणावेल छे–ए वात अमे
समज्या नहि.
कळश–२३प अर्थ–अन्य द्रव्योथी भिन्न, पोतामां ज नियत, पृथक वस्तुपणाने धारतुं (सामान्य
द्रव्य गुण अने विशेषमां कार्यरूप पर्यायोथी स्वतंत्र वस्तु स्वरूपने वस्तु कहे छे) परना ग्रहण त्यागथी
रहित, रागादि मळ रहित ज्ञानस्वरूप छे ते स्वावलंबी ज्ञानद्वारा अवस्थित (निश्चल) पणे अनुभवाय
छे. सामान्य वस्तुमां तो परनुं ग्रहण त्याग नथी पण पर्यायमां तो हतुं ने? ना, पर्यायमां एटले प्रगट
दशामां अज्ञानभावे परनुं ग्रहण त्याग मानतो हतो ते स्वावलंबी ज्ञानद्वारा मिथ्याभावथी छूटी,
एकाग्रतानो अभ्यास वधतां चारित्रमां परम विशुद्धता प्रगट करवाथी, जीव साक्षात् सर्वविशुद्ध कृतकृत्य
थाय छे अने शुद्ध ज्ञानघनरूप तेनो महिमा एवो ने एवो सदा उदयमान रहे छे.
आवा ज्ञानस्वरूप आत्मानुं आत्मामां धारण करवुं ते ज ग्रहवा योग्य सर्व ग्रह्युं अने त्यागजा
योग्य सर्व त्याग्युं. परथी, रागादिथी उपेक्षा ते त्याग अने अभेद पूर्णस्वरूपनी अपेक्षा ते ग्रहवा योग्यनुं
ग्रहण छे. प्रथम श्रद्धामां अने पछी क्रमे क्रमे चारित्रमां स्वाश्रयना बळथी आ बधुं थई जाय छे.
कळश–२३६–अर्थ पोताने भूली श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वीर्यादि शक्ति पराश्रयमां, परसन्मुखतामां
रोकाती हती ते सर्व शक्तिने स्वसन्मुख करी, स्वमां एकमेक करी, ज्ञेयोना भेदथी ज्ञानमां भेद मालुम
पडता हता तेने जाणी, ज्ञेयोना आश्रये ज्ञानमां खंडखंड थवुं छोडी, अखंड ध्रुवधाममां, पूर्ण
विज्ञानघनमां एकाग्रताथी पोतानी सर्व शक्तिने लीन करी ते ज कृतकृत्यता छे.
गुणोना समूहने द्रव्य कहे छे, द्रव्यना संपूर्ण भागमां अने तेनी सर्व अवस्थामां कायम रहे तेने
गुण कहे छे. आत्मा पण पोताना ज्ञान, दर्शन, सुख चारित्र, वीर्य, प्रभुत्व, स्वच्छत्व, अस्तित्व आदि
अनंत गुणोनी पिंड छे, तेने शुद्धनय द्वारा अनुभवमां ग्रहण करवो, पूर्णज्ञानघन आत्माने आत्मामां
धारण करवो ते कृतकृत्यपणुं छे. स्वामीत्व अपेक्षाए श्रद्धामां चोथा गुणस्थानथी अने क्रमे क्रमे
चारित्रमां १३मे गुणस्थाने आ प्रकारे सर्व विशुद्धज्ञान पूर्ण थाय छे.
हवे आचार्यदेव कहे छे के आत्मा सदा ज्ञानस्वरूपी छे, अतीन्द्रिय ज्ञान शरीरी छे–आवा ज्ञानने
पुदगलमय देह ज नथी–एवा अर्थनो श्लोक कहे छे:– आत्मा द्रव्यद्रष्टिथी परने ग्रहतो छोडतो नथी,
खातोपीतो नथी पण व्यवहारथी पर्यायमां तो परनुं करी शके छे ने? ना, व्यवहार तो अंशे सराग
अने वीतरागना भेद, भूमिकाने योग्य होय छे, त्यां ए जातनो राग अने तेमां निमित्त कोण होय ते
बताववा माटे मुनि आहार पाणी ग्रहण करे छे एवा रागने ओळखाववानुं कथन छे. पण परनुं कार्य
आत्मा करी शकतो ज नथी केमके आत्मा सदा अमूर्तिक ज छे.
कळश–२३७–अर्थ–आम (पूर्वोक्त) ज्ञान परद्रव्यथी जूदुं अवस्थित छे, व्यवहारनय तो
परद्रव्यने स्वद्रव्य, परना कारण कार्यादिने जीवना कहे छे तेमां ज्ञानी रहेतो ज नथी. अवा ज्ञानने
(आत्माने) आहार (अर्थात् कर्म एटले आठ कर्म, नोकर्म एटले शरीर–अनाज वगेरेनो आहार)
केम होय के जेथी तेने देहने शंका कराय? (ज्ञानने देह होई शके नहीं, कारण के तेने कर्म–नोकर्म आहार
ज नथी.
हुं आत्मा त्रणेकाळे ज्ञायक ज्योति छुं, परद्रव्यथी पृथक छुं अने ज्ञायकस्वरूपमां अवस्थित छुं–एवुं
जेने भान थयुं छे ते चारित्र वैभवसहित जाणे छे के अहो! आत्मा तो ज्ञानमय छे तेने देह अने कर्म