
प्राचीन पंडितजीए व्यवहारनयना आश्रयनुं फळ संसार छे एम स्पष्ट जणावेल छे–ए वात अमे
समज्या नहि.
रहित, रागादि मळ रहित ज्ञानस्वरूप छे ते स्वावलंबी ज्ञानद्वारा अवस्थित (निश्चल) पणे अनुभवाय
छे. सामान्य वस्तुमां तो परनुं ग्रहण त्याग नथी पण पर्यायमां तो हतुं ने? ना, पर्यायमां एटले प्रगट
दशामां अज्ञानभावे परनुं ग्रहण त्याग मानतो हतो ते स्वावलंबी ज्ञानद्वारा मिथ्याभावथी छूटी,
एकाग्रतानो अभ्यास वधतां चारित्रमां परम विशुद्धता प्रगट करवाथी, जीव साक्षात् सर्वविशुद्ध कृतकृत्य
थाय छे अने शुद्ध ज्ञानघनरूप तेनो महिमा एवो ने एवो सदा उदयमान रहे छे.
ग्रहण छे. प्रथम श्रद्धामां अने पछी क्रमे क्रमे चारित्रमां स्वाश्रयना बळथी आ बधुं थई जाय छे.
पडता हता तेने जाणी, ज्ञेयोना आश्रये ज्ञानमां खंडखंड थवुं छोडी, अखंड ध्रुवधाममां, पूर्ण
विज्ञानघनमां एकाग्रताथी पोतानी सर्व शक्तिने लीन करी ते ज कृतकृत्यता छे.
अनंत गुणोनी पिंड छे, तेने शुद्धनय द्वारा अनुभवमां ग्रहण करवो, पूर्णज्ञानघन आत्माने आत्मामां
धारण करवो ते कृतकृत्यपणुं छे. स्वामीत्व अपेक्षाए श्रद्धामां चोथा गुणस्थानथी अने क्रमे क्रमे
चारित्रमां १३मे गुणस्थाने आ प्रकारे सर्व विशुद्धज्ञान पूर्ण थाय छे.
खातोपीतो नथी पण व्यवहारथी पर्यायमां तो परनुं करी शके छे ने? ना, व्यवहार तो अंशे सराग
अने वीतरागना भेद, भूमिकाने योग्य होय छे, त्यां ए जातनो राग अने तेमां निमित्त कोण होय ते
बताववा माटे मुनि आहार पाणी ग्रहण करे छे एवा रागने ओळखाववानुं कथन छे. पण परनुं कार्य
आत्मा करी शकतो ज नथी केमके आत्मा सदा अमूर्तिक ज छे.
(आत्माने) आहार (अर्थात् कर्म एटले आठ कर्म, नोकर्म एटले शरीर–अनाज वगेरेनो आहार)
केम होय के जेथी तेने देहने शंका कराय? (ज्ञानने देह होई शके नहीं, कारण के तेने कर्म–नोकर्म आहार
ज नथी.