Atmadharma magazine - Ank 231
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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पोष : २४८९ : २१ :
कलकथी दूषित थई रह्यो छे, ए जीवने तत्त्वविचारमां सावधान थतां एवी निर्मळ विचारधारा जागे के
सौथी प्रथम दर्शन मोहनीयकर्मनो उपशम थई औपशमिक सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय छे. जेवी रीते
पित्तना उदयना कारणे भ्रमित थयेली चित्तवृत्तिनो अभाव थतां, दुध आदि पदार्थोना यथार्थ स्वरूपनुं
ज्ञान थवा लागे छे, एवी रीते ज तत्त्वविचारनो उद्यम करतां करतां, स्वरूपमां परिणामोनी मग्नता
थतां ज अंतरंग निमित्तकारणरूप मोहनीयकर्मनो उपशम वा क्षयोपशमसहित जीव आदि पदार्थोना
स्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान थवा लागे छे. जेम रात्रि संबंधीना अंधकारने दूर कर्या विना सम्यग्दर्शन उदय
पामतुं नथी. हे भव्यजीव, अधःकरण अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरण ए त्रण कारणोद्वारा
मिथ्यात्वप्रकृतिना मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व अने सम्यक्प्रकृतिरूप त्रण टुकडा करीने कर्मोनी स्थिति
ओछी करतो थको जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे.
आप्त एटले सर्वज्ञ, वीतराग अने परम हित उपदेशक एवां आप्ते कहेला आगम अने जीवादि
पदार्थोनुं अति प्रेम–रुचि सहित श्रद्धान करवुं एने सम्यग्दर्शन मानवामां आवे छे. आ सम्यग्दर्शन ज
सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनुं मूळ कारण छे. सम्यग्दर्शन विना सम्यग्ज्ञान के सम्यक्चारित्र होई
शकता नथी. जीवादि सात तत्त्वोनुं त्रण मूढता रहित अने आठ अंग सहित यथार्थ श्रद्धान करवुं
सम्यग्दर्शन छे. प्रशम, संवेग, आस्तिकय अने अनुकंपा ए चार सम्यग्दर्शनना गुण छे, अने श्रद्धा,
रुचि, स्पर्श तथा प्रत्यय ए एनी पर्याय छे. निःशक्ति, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढद्रष्टि,
उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य अने प्रभावना ए सम्यग्दर्शनना आठ अंग छे. आ आठ अंगरूपी
किरणोथी सम्यग्दर्शनरूपी रत्न बहुज शोभायमान थाय छे. हे आर्य, तुं आ श्रेष्ठ जैन मार्गमां शंकाने
छोड, भोगोनी ईच्छाने दूर कर, ग्लानिने छोडीने अमूढद्रष्टिने (विवेकपूर्ण द्रष्टिने) प्राप्त कर. दोषना
स्थानो छूपावी सम्यक्धर्मनी वृद्धि कर, मार्गमां चलित थता धर्मात्माओने स्थितिकरण कर,
रत्नत्रयधारक आर्य पुरूषोना संघमां प्रेमभावनानो विस्तार कर, अने जैनशासननी यथाशक्ति
प्रभावना कर. मूढताओथी अंध थयेलो जीव तत्त्वोने देखवा छतां मानतो नथी. माटे देवमूढता
लोकमूढता अने पाखंडमूढता ए त्रण मूढताने छोड.
[नोंध–उपर कह्युं ते निश्चय सम्यग्दर्शननी साथे होवावाळा व्यवहार सम्यग्दर्शनना भेदनुं
वर्णन छे. निश्चय समकित तो निज आत्माने ग्रहण करवा योग्य माननार स्वाश्रित द्रढता छे.]
आम निर्धार करीने, हे आर्य, पदार्थना सम्यक् स्वरूपनुं श्रद्धान करवावाळा सम्यग्दर्शनने ज तुं
धर्मनुं स्वरूप समज, ए सम्यग्दर्शन प्राप्त थई गया पछी आ संसारमां एवुं कोई सुख बाकी रहेतुं
नथी के जे जीवोने प्राप्त थाय नहीं. आ संसारमां ए ज पुरूष श्रेष्ठ जन्म पाम्यो छे, ए ज कृतार्थ छे
अने ए ज पंडित छे के जेना हृदयमां कपटरहित वास्तविक सम्यग्दर्शन रहे छे. हे आर्य, तुं निश्चय
समज के आ सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महेलनी पहेली सीडी छे, नरक आदि दुर्गतिओना द्वारने
रोकवावाळा मजबूत कमाड छे, धर्मरूपी वृक्षनुं स्थिर मूळ छे, स्वर्ग अने मोक्षरूपी घरनुं द्वार छे, अने
शीलरूपी रत्नहारनी मध्यमां जडवामां आवेलुं श्रेष्ठ रत्न छे. आ सम्यग्दर्शन जीवोने शोभा करवावाळुं
छे, स्वयं प्रकाशमान छे, रत्नोमां श्रेष्ठ छे, सवोत्कृष्ट छे अने मुक्तिरूपी लक्ष्मीना हार समान छे. आवा
आ सम्यग्दर्शनरूपी रत्नहारने, हे भव्य, तुं पोताना हृदयमां धारण कर. जे पुरूषे अति दुर्लभ आ
सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्नने प्राप्त करी लीधुं छे. ते शीघ्र ज मोक्ष सुधीना सुखने प्राप्त