उपरथी गुजरातीमां पद्यानुवाद हरिगीत करेल छे.
ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करे त्यारे ते पाप हराई जाय छे. रागादि दोषने हुं हणुं एवो विकल्प पण
करवो पडतो नथी. ए विकल्प (राग) जीवने स्पर्श्यो नथी. जड कर्मना उदयने राग स्पर्श्यो नथी. जो
बे भिन्न चीजो एक बीजाने स्पर्शे–प्राप्त थाय तो तेनी स्वतंत्र स्थिति सिद्ध थती नथी.
स्वभावमां शुद्ध द्रष्टिथी ढळ्यो त्यां पूर्णताने लक्षे मंगळ शरुआत, साधक दशा प्रगट थई; शुद्ध स्वभाव
शक्तिरूपे हतो तेनी प्रगटतारूपे उत्पत्ति अने अशुद्धतानो व्यय थयो. हवे एटले पूर्वे बीजुं एटले
स्वभावथी विरुद्ध द्रष्टि ज्ञान अने आ चरण हतुं तेना अभाव स्वभावी नित्य ज्ञानानंदथी पूर्ण
समस्वभावी चैतन्य सूर्य हुं आत्मा छुं, एम अखंड ज्ञायकना अनुभवथी जाग्यो त्यारथी पूर्णताना
लक्षे शरुआत थई, ते अपूर्व साधकपणुं शरु थयुं, जे अनादिकाळथी न हतुं, प्रगट दशामां बाधकपणुं
अनादिनुं हतुं; साधक दशा अनादिनी न होय. समुदाय अपेक्षा चार गति (–मनुष्य, तिर्यंच, देव अने
नारक), साधक अने बाधक तथा सिद्ध परमात्मा अनादिथी छे–पण अमुक व्यक्ति सिद्धपणाने साधे ते
सादि छे, आचार्यदेव कहे छे के अमने एवो मंगळभाव जाग्यो छे. अनंता सर्व सिद्धोने एक साथे
सन्मानपूर्वक ज्ञानमां समाडीने नमस्कार करुं छुं. अहो आ ते कोई दैवी टीका... समयसार एटले
भरतक्षेत्रमां अजोड छे; परमात्मतत्त्वने पामवानुं साधन अजोड आंख छे. श्री अमृतचंद्राचार्यदेव
भरतक्षेत्रमां अध्यात्म शास्त्रना अजोड टीकाकार थई गया छे. समयसारजी सर्वोत्कृष्ट छे तेमां अत्यांत
अज्ञानीने पण सार तत्त्व स्पष्टपणे समजावेल छे. परमार्थ–सत्यार्थ बतावनार स्वाश्रित ते निश्चय
अने भेद उपचार तथा पराश्रित बतावनार ते व्यवहार छे. निश्चय अने व्यवहार–ए बे नयोने
विषयना भेदथी परस्पर विरोध छे–तेनो नाश सम्यग्ज्ञान विना थतोनथी.
योग्य कह्यो छे अर्थात् साधकने वच्चे आवे छे. हिन्दीमां टीकामां पं. जयचंद्रजीए ए व्यवहारनो खेद
प्रगट कर्यो छे के जबरन बळपूर्वक तेनुं आलंबन आवी जाय छे. “परम अध्यात्म तरंगिणीना हिन्दी
अर्थमां” लखे छे के जो वच्चे व्यवहारना भेद न आवता होत अर्थात् उग्र पुरुषार्थवडे शुद्ध चैतन्यनी
प्राप्ति थई जाय तो सम्यग्द्रष्टि “