Atmadharma magazine - Ank 232
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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महा: २४८९ : ७ :
विनय एटले व्यवहार नमस्कार पण सर्व प्रकारे रागमां हेयबुद्धि अने आत्माना आश्रयथी लाभ छे
एम उपादेयमां वर्ते तेने व्यवहारनुं ज्ञान साचुं कहेवाय.) एम नम: समयसाराय आदि चार विशेषण
आठ पदने लागु पाडी नमस्कार कर्या सामान्यपणे परमात्माने विशेषमां पांच परमेष्ठी अने रत्नत्रयने:
हवे चालतो अर्थ – प्रथम मंगळीकमां समयसार एटले सर्वज्ञ परमात्मा, सर्वजीवोमां सार
एवा शुद्धात्माओ, जे ज्ञानावरणीय आदि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म अने शरीर, वाणी आदि नोकर्म
रहित एवा शुद्धात्मा छे तेमने मारो नमस्कार हो; तेमां सिद्ध भगवान परमात्मा अने पोतानो आत्मा
पण आव्यो; हुं पण त्रणे काळ पूर्ण शुद्ध शक्तिवान छुं– एम, निर्णयमां परमात्मानो आदर करीने
स्वसन्मुख ढळी ध्रुव शुद्धस्वभावनो निर्मळभाववडे सत्कार, आदर करुं छुं; एने महामंगळीक कहेवामां
आवे छे. जुओ समयसार गा. ३१ थी ३३ निश्चयमां भूतार्थ सत्यार्थ एवा निज परमार्थने नमस्कार छे.
पछी अर्हंता दिना विनयरूप व्यवहार नमस्कार व्यवहारमां सत्यार्थ कहेवाय छे. निश्चय नमस्कार अंदरमां
शुद्धकारण परमात्माने होय तो हेयरूप जाणेला– शुभरागने व्यवहार नमस्कार कहेवामां आवे छे.
भावाय=द्रव्य, गुण, पर्याय त्रणे भावरूप पदार्थ छे; तेमां अहीं भावाय द्रव्य छे,
चित्स्वभावगुण छे. स्वानुभूति पर्याय छे. नमुं छुं ते साधक दशारूप पर्याय छे अने पूर्णदशारूप
स्वानुभूतिथी प्रकाशित परमात्मभाव ते पूर्ण पर्याय छे. आत्मद्रव्य पोताना बधा भावोमां ध्रुव छे ने
ते ज टकीने स्वानुभूतिपणे स्व–पर प्रकाशकज्ञानपणे परिणमे छे. आवो आत्मा माने तेने परथी भिन्न,
स्वथी अभिन्ननुं साचुं ज्ञान थाय.
भावायमां आत्मा सर्वथा भावरूप नथी पण कथंचित् छे, कथंचित् नथी अर्थात् स्वरूपथी ज छे,
पररूपथी कदि नथी. जे अपेक्षाए छे ते ज अपेक्षाए नथी एम नहीं. जेमके द्रव्य अपेक्षाए दरेक वस्तु
नित्य ज छे, अनित्य नथी, पण पर्याय अपेक्षाए पण नित्य छे एम नथी. त्यारे केम छे के एज वस्तु
पर्याय अपेक्षाए तो अनित्य ज छे, नित्य नथी. तेनी प्रत्येक समये थती प्रत्येक गुणनी उत्पाद
व्ययपणे प्रवाहित थती पर्यायो ते पण क्रमबद्ध होवाथी क्रमवर्ति ज छे, अक्रम नथी.
त्रणेकाळे छ जातिना पदार्थो भावरूप छे ते सत्रूप होवाथी उत्पाद–व्यय–ध्रुवपणा सहित छे
अने परपणे नथी– आम कहेवाथी चैतन्य पदार्थनो सर्वथा अभाव माननार चार्वाक आदि मतनो
निषेध थई जाय छे. आ बधुं नित्य नथी ज. संयोग मळवाथी जीव उत्पन्न थाय छे. एम जाणनार,
निर्णय करनार पोते ज ज्ञान आनंदनुं अक्षयधाम छे. पोते पोताने भूली जे पोतानुं नथी तेने पोतानुं
करवा मागे छे, तेथी दुःखी थाय छे.
आत्मानी शंका करे के हुं कहुं छुं के हुं नित्य नथी एमां ज अस्तिपणे पोतानो सद्भाव साबीत
थाय छे. छतां कहे छे के हुं देहादिथी जुदो ज्ञाता रूपे नथी– ए तारी बलीहारी छे. हुं नथी ए शब्दो
बराबर छे, पण तुं कोना पणे नथी? शरीर, वाणी, भोजन वस्त्रादि तथा परजीवादिपणे नथी पण
सदा जाणनारा साक्षीपणे पोतापणे कोण छे? नथी एम जाण्युं कोणे? माटे ज्ञाता स्वरूप आत्मा
चैतननामे वस्तु छे. तेने नही माननार पोते ज अस्ति सुचवे छे.
श्री राजचंद्रजीए नानीवयमां लख्युं छे के “करी कल्पना द्रढ करे नाना नास्ति विचार; त्यां
अस्ति एम सूचवे, ते ज खरो निर्धार”
‘आ’ प्रत्यक्ष विद्यमानता सूचवे छे. भगवान आत्मा आ पणे नथी तो कोण–पणे छे? सदा
सर्वत्र जाणवानुं काम करे छे जेनी सत्तामां जणाई रह्युं छे ते जाणनार स्वरूप आ आत्मा ज्ञानानंदपणे छे,
ते ज तारी सत्ता शुद्ध चेतना धातु छे एवा अनंतगुणनुं धाम छे, तुं ज परमानंद सर्वज्ञ परमात्मा
स्वभावी छो, पण प्रगट दशामां अल्प विकास छे पण शक्तिमां सदा पूर्ण ज छे, किंचित् मात्र अपूर्ण नथी.
चित्स्वभावाय एटले आत्मानो विशेष खास मुख्य