: ६ : आत्मधर्म: २३२
छे अने स्वानुभव प्रत्यक्षथी प्रकाशमान छे तथा सर्वज्ञ वीतराग कथित चेतन अचेतन सर्व पदार्थमां
दरेकनुं स्वतंत्रपणुं स्वरूपथी अस्ति, पररूप (–परद्रव्य क्षेत्र काळ अने भाव) थी नास्ति आदि
सप्तभंगीनुं स्वरूप बताववावाळा अने भिन्न–भिन्न जीव अजीव सर्व पदार्थोना ज्ञाता छे, एवा
सिद्धांतने प्राप्त थवावाळा, सिद्धांतोना अध्ययन करवा कराववावाळा उपाध्याय परमेष्ठीने नमस्कार हो.
जुओ, दरेक पदार्थ अने तेना गुण पर्याय–तेना स्वरूपपणे छे, परपणे नथी ए सम्यक्नियम
अने ते ते पदार्थनुं ते रूपे ज होवुं नियत ज छे; जेमके व्यवहार व्यवहारपणे ज छे, व्यवहारना
स्थानमां छे तथा ते निश्चयपणे नथी ज अने निश्चय छे ते निश्चयपणे ज छे, व्यवहारपणे नथी ज.
गुण गुणपणे छे. अन्य गुणपणे नथी, अन्यना आधारे पण नथी. द्रव्यमां दरेक पर्याय पोतपोताना
स्थाने रहीने पोतपोताना अवसरे प्रगट थाय छे, आडी अवळी थती नथी– एम क्रमसर ज छे, अक्रम
नथी ज. सर्वज्ञनुं ज्ञान एम ज जाणे छे, तेनाथी विरुद्ध न जाणे–ने तेमना कहेनार शास्त्र पण जे
पदार्थ जे पर्याय जे रूपे छे ते रूपे ज कहे, अन्यरूपे न कहे–ए नियम सर्वत्र लागु पडे छे.
द्रव्यगुण पर्याय त्रणे सत् छे. जे कोई एक अंशने बीजा रूपे माने, बीजामां भेळवीने खीचडो
करे छे तेने अस्ति नास्तिथी पर्यायो तेना काळे नियत छे. अनियत नथी एवी खबर ज नथी. दरेक
पर्याय स्वथी नियत छे, परथी अनियत छे– एम न माने ते अनेकान्तने नामे स्याद्वादने खीचडीवाद,
संशयवाद बनावे छे.
सिद्धांतज्ञ उपाध्यायमां घणा अर्थो भर्या छे. जे बंधनुं कारण छे ते मोक्षनुं कारण नथी ज. जेमके
आस्रव आस्रवपणे छे अने संवर–निर्जरापणे नथी, संवर संवरथी छे, आस्रवथी संवर थतो ज नथी.
कर्मनो उदय कर्मना लीधे छे, जीवने लीधे नथी. कर्मनो विपाक कर्ममां छे, जीवमां नथी एम छयेकारक
जडकर्मना कर्ममां छे. जीवने तेनाथी लाभ नुकशान माने तेने अस्ति नास्ति सिद्धांतनुं ज्ञान नथी,
स्वपरनी स्वतंत्रतानुं भेद विज्ञान नथी.
दरेक पदार्थनुं स्वरूप अस्ति नास्तिथी स्वतंत्र ज छे. परतंत्र कोई रीते नथी; मात्र निमित्तनुं
ज्ञान कराववा परतंत्रता, अकाळ, अकस्मात कहेवाय छे ते असद्भूत व्यवहारनयनी रीत छे, ते
परमार्थ नथी. एम दरेक द्रव्य–गुण–पर्यायने स्वतंत्र कहे तेने जैन शास्त्रमां उपाध्याय कह्यां छे– तेमने
अमारा नमस्कार हो.
(प) साधु– जे स्वानुभव प्रत्यक्षथी प्रकाशमान चैतन्य स्वभावना धारक छे. सत् स्वरूपपणे
अस्ति नास्तिथी निश्चत जीव अजीव सर्व पदार्थना भेदने जाणवावाळा छे. आमां मंगळीक कलशना
चारे विशेषण आवी गया. वळी केवा छे? सम्यग्द्रर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रयथी शोभित छे, ते
साधु समयसार छे, परमेष्ठि छे. एवा सत्यार्थ समयमां स्वकाळ स्वसमयरूप रत्नत्रयमां परिणमेला,
सर्व साधुने अमारो नमस्कार हो. बहारथी नग्न थया, शुभरागनी क्रिया पाळे ते नहीं, पण शुद्धात्माने
आश्रये निश्चय रत्नत्रयने साधे तेने ज सर्वज्ञ भगवाने साधु कहेल छे. व्यवहार रत्नत्रय तो
असद्भूत व्यवहारना विषयमां जाय छे, अने ते गौण छे,
हवे त्रण बोल रत्नत्रयना पक्षमां–पोताना स्वरूपथी शुद्धात्माने आश्रये प्रकाशे छे. चैतन्य अने
स्वस्वरूप जीव अजीव पदार्थोना ज्ञान–श्रद्धान अने स्वमां एकत्व परिणमनरूप स्वसमयने
कराववावाळा रत्नत्रय ते आत्मा ज छे सं=सम्यक्त्व, अय=गमन, ज्ञान, सम्यग्ज्ञान, सार=सरण,
चरण सम्यग्चारित्र ए त्रण स्वरूप रत्नत्रयने नमस्कार हो. आवुं स्वरूप समजीने निर्विकल्प
आत्मानी द्रष्टि अने सम्यक् शुद्ध रत्नत्रय पर्यायने नमस्कार एटले एवा आत्मा द्रव्यमां अभेद
एकाकारपणे ढळवुं, नमवुं ते नमस्कार छे (निमित्तनो