: ८ : आत्मधर्म: २३२
गुण ज्ञान छे. एवा अनंतगुण स्वभावनो पिंड ते आत्मद्रव्य छे. जेम रूपी पुद्गळो छे, तेमां स्पर्श रस
गंध वर्णादि गुण छे तेम जीव एटले आत्मामां ज्ञान दर्शन सुखादि अनंत गुणो छे. मोक्षदशाने प्राप्त
सिद्ध परमात्मा थया ते आत्माने समयसार कहीने, तेमां चित्स्वभाव विशेषण कहेता त्यां पोताना
ज्ञानादि गुणोनो अभाव माननारनो निषेध थयो; अने गुण गुणी सर्वथा भेद माननार, बहारना
संयोगथी निमित्तथी गुण उत्पन्न थवानुं माननार, वैशेषिक मतनो निषेध थयो; अने गुण गुणी सर्वथा
भेद माननार, बहारना संयोगथी निमित्तथी गुण उत्पन्न थवानुं माननार, वैशेषिक मतनो निषेध
थयो. केम के नित्य स्वतःसिद्ध आत्मा वस्तु छे तो तेना सतात्मक अनंत संख्यावाळा सर्वगुणो पण
अनादिअनंत अने स्वतःसिद्ध छे ते ज्ञानादि गुणो दरेक आत्मामां पोताने आश्रये स्वद्रव्यना संपुर्ण
भागमां अने सर्व अवस्थामां रहे छे; माटे निमित्तथी (परथी) गुणनुं कार्य थाय एम माननारा
मिथ्यामतनो चित् स्वभाव कहेतां निषेध थई जाय छे. उपचारथी बोलाय छे के आनाथी आनुं काम
थयुं, परथी लाभ हानि थई एटले के एम नथी पण खरेखर तेनी योग्यता एटले निज शक्तिथी ज
कार्य थयुं छे; त्यां निमित्तनुं ज्ञान कराववा, निमित्तथी थयुं एम बताववानी व्यवहारनी रीत छे.
निमित्ताधिन द्रष्टिवाळा निमित्तथी थाय, निमित्त विना न थाय एम सर्वत्र परतंत्रता मानी
व्यग्रताने वेदे छे. गुण गुणीने जुदा माननारा संयोग (निमित्त) थी गुण उत्पन्न थवानुं माने छे. तेओ
द्रष्टांत आपे छे के माटीमां गंध नथी; माटीना कोरा घडामां पाणी नाखो तो जुओ, पाणीना संयोगथी
गंध गुण आव्यो तो एम नथी पण निमित्ताधिन द्रष्टिवाळा एम माने छे. शास्त्रथी, शब्दोथी ज्ञान
आवे छे? ना. शास्त्र सांभळीने, दूध, बदाम अने ब्राह्मी तेलना योगथी बुद्धि वधे, चा पीवाथी चेतना
आवे तो तेनाथी अनेकगुणी चा वगेरे पीवाथी केवळज्ञान थवुं जोईए पण एम नथी माटे भगवाने
गुण गुणीनो संयोग संबंध माननारने मिथ्याद्रष्टि कह्या छे.
महेमानने जमवानुं कह्युं होय, केरीनो रस काढतां ख्यालमां आव्युं के रस ओछो छे, छोकराने
आज्ञा करे के रस ओछो छे, पांचशेर लई आव, तो छोकरो केरी लाववानुं समजे छे; साकर लाववानुं
समजे तो मूर्ख गणाय, तेम दरेक वस्तु तेना गुण सहित ज होय छे, तेने बीजाथी गुण मानवो
मिथ्यामान्यता छे. ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान ते आत्मा छे. आत्मा अने ज्ञान एम सर्वथा भेद नथी;
अंतरमां पूर्णज्ञान शक्तिपणे छे. बहार प्रगट दशा बहु अल्प हती पछी अंदर ओळखाण अने
एकाग्रता वडे अंदर अनुभवथी प्रगट दशा–पर्याय निर्मळ थाय छे ते पोताथी ज विकास थयो, त्यारे
अन्यने निमित्त कहेवाय छे– एम न मानता, तेनाथी विरुद्ध माने के पोतानी योग्यताथी ज्ञान न थाय
निमित्त जोईए; शुभरागथी, वांचवाथी, सांभळवाथी ज्ञान पर्याय आवी; आवुं निमित्त आव्युं तो
क्रोध थयो एम माने ते जूठ छे. जो निमित्तथी ज्ञान अने भूल–अभूल थाय तो अंदरमां शक्तिए शुं
कर्युं? ते तो तेनी योग्यता प्रमाणे निरन्तर उत्पाद–व्ययरूप प्रगट कार्य कर्या ज करे छे. एक समय पण
निमित्त न होय तो न थाय – एम कदि बनतुं नथी. माटे निमित्तथी थाय छे एम माननार पोताने
पोतानी संयोग द्रष्टिथी ज भूल्या छे. गुण पोते ज अंदरथी परिणमन कर्या करे छे, ने ते समयनी
योग्यता=निज शक्तिथी ज बहार एटले प्रगट पर्यायरूप–कार्यरूप देखाव आपे छे.
वस्तु ते शक्तिवान छे. आत्मा पोतानी ज्ञानादि संपूर्ण शक्तिसहित छे; तेना उपर द्रष्टि अने
एकाग्रताथी तेमांथी निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे. अज्ञानी एम माने छे के संयोग, निमित्त न होत तो
ज्ञान न थात. हा, तुं न होत तो न थात. पण ए केम बने? एक आकाशक्षेत्रे छये द्रव्य क््यारे न
होय? नियम–सिद्धांत एक ज प्रकारे छे के परने लीधे किंचित् प्रगटतुं नथी पण दरेक द्रव्यमांथी ज तेना
आधारे पर्याय प्रगट थाय छे.
गुण गुणी, स्वभाव अने स्वभाववान अभेद छे; मात्र संज्ञा, संख्या, लक्षण अने प्रयोजन
अपेक्षाए