: १२ : आत्मधर्म: २३२
छे.) अनंतवर्णन करवामां आवे तो पण पार आवे नहीं. आज वर्तमानमां अल्पबुद्धि छे माटे
विस्तारमां कहेता समजमां न आवे माटे संक्षेपमां कथन कर्युं छे. जे गुणवान छे ते आ थोडाने ज घणुं
समजी लेशे, तेमां ज संपूर्ण आवेल छे. समजदार समजशे.
सवैया पोताने शिखामण
परम पुराण लखे पुरुष पुराणपावै, ज्ञान समान न अन्य जगतमां सुखनुं कारण,
सही हवे स्वज्ञान जाकी महिमा अपार है. आ परमामृत जन्म जरा मृतु रोग निवारण;
ताकी कीयें धारणा उधारण स्वरूपका ह्वै, विषय चाह दवदाह, जगत जन सहुने बाळे,
ह्वै है निसतारणा सो लहैं भवपार है. अन्य उपाय न कोई, ज्ञान जळथी सुखपामे.
राजा परमात्मा कौ करत बखाण महा, रागाग्नि जीवने बाळती, तेथी समामृत सेवीए,
दीपक कौ सुजस बढै सदा अविकार है. चिरभजै विषय कषाय तुर्तज तजी निजपद धारीए;
अमल अनुप चिदरूप चिदानंद भूप, कयां राचतो परपदमहीं ए पद, न तुज कयम दुःख सहे
तुरत ही जानै करे अरथ विचार है. १ हे! ‘दौल’ थाव सुखी स्वपद रचि दाव मत चुको हवे.
दो हा
परमपुरुष परमात्मा परम गुण कौ थान,
ताकी रुचि नित कीजिये पावै पद भगवान. २
विनयथी भणवामां आवेल शास्त्र जो कदी प्रमादथी विस्मण
थई जाय तो परभवमां ते (अल्प प्रयासे) उपस्थित थई जाय छे अने
केवळज्ञानने पण प्राप्त करावे छे.
(धवल पु. ९ पृ. २प९)
आत्मस्वरूपनो अनिश्चय ते ज मुख्य अंतराय छे.
नीरखीने नवयौवनालेशन विषय निदान गणे काष्टनी पुतळी ते
भगवान समान.
स्त्रीना स्वरूप पर मोह थतो अटकाववाने उपरनी त्वचा
वगरनुं तेनुं रूप वारंवार चिंतववा योग्य छे.
मनने वश कर्युं तेणे जगतने वश कर्युं.
अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र अने अनंतवीर्यथी
अभेद एवा आत्मानो एक पळ पण विचार करो. चंचळ चित एज
सर्व विषय दुःखनुं मूळियुं छे. ते वस्तुना विचारमां पहोंचो के जे वस्तु
अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूप छे.
सर्व पापमां प्रथम पाप हित–अहितनुं अज्ञान छे. जेमां
परनिंदा ए ज सबळ पाप मानवुं.
–श्री राजचंद्रजी.