Atmadharma magazine - Ank 232
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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माह: २४८९ : १३ :
भूतार्थ स्वरूपनुं ग्रहण
अने
साध्य – साधनो सुमेळ
(पंचास्तिकाय गा. १७२ उपर पू. गुरुदेवना प्रवचनो. राजकोट ता. ३–प–६र)
आत्मानुं हित करनार जीवनुं सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान अने वर्तन केवुं होय, पूर्णताने लक्षे शरूआत
थाय छे, वच्चे मंद पुरुषार्थमां रागनी जात केवी होय छे तेनी वात चाले छे.
छठ्ठा गुणस्थान सुधी चारित्रमां बुद्धिपूर्वक राग होय छे, ते अपेक्षाए भेदवासीत बुद्धि कहेवामां
आवे छे; त्यां शुद्धिनुं खरूं कारण तो शुद्धात्मद्रव्यना अभेद आश्रयरूप वीतरागभाव ज छे, अर्थात्
निश्चय श्रद्धा, ज्ञान, चारित्ररूप वीतरागी अंश प्रगटे छे, ते निश्चय मोक्षमार्ग छे, तेनी साथे असद्भूत
उपचरित व्यवहारनयना विषयरूप–बहिरंग सहचरहेतुपणे (निमित्तपणे) शुभराग (–व्यवहार
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रना विकल्प) होय छे तेनुं स्वरूप बताववामां आवे छे.
सर्वज्ञ वीतरागे कहेला बधा शास्त्रोनो सार आत्मामां वीतरागी द्रष्टि करवी अने तेना बळवडे,
संयोग–विकल्पना आलंबनथी हटीने ज्ञानानंदथी पूर्ण स्वभावमां एकाग्र थवुं, वीतरागता प्रगट
करवी, ते छे.
चैतन्य वस्तु पूर्ण छे, तेनी अभेद द्रष्टि थई त्यारथी अनादिनी–पराश्रयनी रागनी रुचिरूप
मिथ्यात्व वासीत बुद्धि हती ते पलटीने अंदर शुद्ध चैतन्यघनमां एकाकार अनुभव थतां, पुण्यपापनी
रुचि छूटी, अनुपम शान्तिनो, अभेद चिन्मात्रनो अनुभव शरू थाय छे तेने प्रथमनो धर्म कहेवामां
आवे छे, श्रद्धामां, द्रष्टिमां अने अंशे स्वरूपाचरण चारित्रमां आत्मा धर्मपरिणत थवा छतां, विशेष
चारित्र नथी त्यां छठ्ठा गुणस्थानमां राग, निमित्त, अल्पज्ञता उपर लक्ष जाय छे तेटली भेदवासीत
बुद्धि छे.
सच्चिदानंद पूर्ण ज्ञानघन छुं एमां यथार्थ द्रष्टि अने शुद्धनयरूपज्ञानने वाळीने स्वरूपनो
अनुभव कर्यो, पण वर्तमान प्रगट दशामां पूर्ण निर्दोषता प्रगट करी नथी, तेथी, रागरूप वासना–शुभ
लागणी होय छे तेने भेदज्ञान सहित जाणीने त्यांथी हटी, स्वरूपमां गुप्त थवानी वात छे.
अनादिथी परपदार्थमां अने रागमां एकताबुद्धि हती, त्यांसुधी धर्मना नामे मुनि थयो– व्रत