: १४ : आत्मधर्म: २३२
पाळ्या पण रागथी खसी, एकलो ज्ञायक छुं, हुं ज पूर्णानंद छुं– एवो अभेद अनुभव, एक सेकन्ड पण
कार्यो नथी. अहींतो सत्य अनुभव थयो छे, चारित्रवंत छे, पण पूर्ण वीतरागता नथी त्यां क््यां, कई
जातनो शुभ राग होय ते वात चाले छे. वीतरागी द्रष्टि अने चारित्रथी दूमेळवाळो राग न होय;
वीतरागता ज सर्व शास्त्रोनुं तात्पर्य छे. प्रथम व्यवहार अने पछी निश्चय–एम होतुं नथी पण
वीतरागी द्रष्टि उपरांत चारित्र छे त्यां मंद प्रयत्नवाळी साधकदशा साथे व्यवहारनी लागणी शुभराग
कई जातनो होय छे तेनो मेळ बतावे छे.
भेदवासीत बुद्धि एटले अज्ञानी न लेवो पण निर्मळ चैतन्यमां द्रष्टि होवा छतां चारित्रमां
अनादिथी रागादि मलीनता चालु छे– ए अपेक्षाए–भेदवासीत बुद्धि छे, ने तेने छोडवानो उपाय शुं
ते कहे छे.
प्राथमिक दशावान जीवोने अर्थात् ४–प–६ गुणस्थानवर्ती जीवोने कथंचित् भेदवासीत बुद्धि छे
तेथी संसार छे; पण पर वस्तुना कारणे संसार छे एम नथी. निश्चय ज्ञान साथे व्यवहारज्ञान होय छे,
तेमां सद््रभूत व्यवहारनय द्वारा, अंशे वीतरागभावरूप निर्मळ दशा अने असद्भूत व्यवहारनय द्वारा,
ते भूमिकाने योग्य कई जातनो राग उचित निमित्तपणे होय छे तेनो मेळ बतावे छे. स्वरूपमां अभेद
द्रष्टि थई छे पण प्रगट दशामां पूर्ण अभेद थयो नथी– त्रण कषायनो अभाव कर्यो छे: अने
द्रव्यस्वभावना अभेद आलंबनना बळथी वारंवार ७मुं गुणस्थान, निर्विकल्प शुद्ध उपयोगी थाय छे–
एवी मुनिदशा त्रणेकाळ होय छे, तोपण प्रमादवश छठ्ठा गुणस्थानेत्र वारंवार आवे छे; तेथी त्यां
भेदवासीत् बुद्धि रही छे.
रागादि आस्रव अने ज्ञानघन स्वभावनुं भेदज्ञान स्वसन्मुखताना बळथी होय छे ते आ
वीतरागपणाने व्यवहार निश्चयना अविरोधवडे ज अनुसरवामां आवे तो ईष्टसिद्धि छे, परंतु बीजी
रीते नहीं. अर्थात् व्यवहार अने निश्चयनी सुसंगतता रहे एवी रीते एक वीतरागताने अनुसरवामां
आवे तो ज ईष्टनी सिद्धि थाय छे.
छठ्ठा गुणस्थाने मुनियोग्य शुद्ध परिणति शुद्धत्माना आलंबनना बळी निरन्तर होय ज छे;
तेम ज महाव्रतादि र८ मूळगुण संबंधी शुभ भावो यथायोग्य होवा ते निश्चय व्यवहारना अविरोधनुं
(सुमेळनुं उदाहरण छे.
पांचमा गुणस्थाने तेने योग्य शुद्ध परिणति निरंतर होवी तेम ज देशव्रत आदि संबंधी
शुभभावो यथायोग्यपणे होवा ते पण निश्चय व्यवहारना अविरोधनुं उदाहरण छे.
उपरनी वातने विशेषणपणे समजावे छे.
अनादिकाळथी भेदवासित बुद्धि होवाने लीधे, प्राथमिक जीवो जे मोक्षमार्गमां आरूढ थई छठ्ठा
सातमा गुणस्थानमां वर्ते छे– पूर्ण अभेद थया नथी, तेथी तेओ भिन्न साध्य साधनभावने जाणीने
तेना स्वाश्रित, पराश्रित भेदने अवलंबीने सुखे सुखे करीने तीर्थनी शरूआत करे छे अर्थात् सुगमपणे
मोक्षमार्गनी प्रारंभ भूमिकाने सेवे छे.
जेम श्रद्धामां भेदवासना रहित अभेद थयो छे तेम जो चारित्रमां परिपूर्ण थयो होय तो तेने
अवतार न होय– भिन्न साधन साध्यनो प्रश्न न होय, पण चारित्रमां भेदरूप अधूरी दशा छे तेथी
सराग दशामां भेदवासीत बुद्धि छे; अंशे सराग, अंशे वीतरागनो भेद छे. छठ्ठा गुणस्थानना काळे
एवा भेदमां बुद्धि रोकायेली होय छे.
मोक्षमार्ग प्राप्त ज्ञानी जीवोने प्राथमिक भूमिकामां साध्य तो परिपूर्ण शुद्धताए परिणत आत्मा
छे अने तेनुं साधन व्यवहारनये (आंशिक शुद्धिनी साथे