Atmadharma magazine - Ank 232
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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महा: २४८९ : १प :
रहेल) भेद रत्नत्रयरूप परावलंबी विकल्पो शुभरागरूप व्यवहार रत्नत्रय होय छे. आ रीते ते
जीवोने व्यवहारनये साध्य अने साधन भिन्न प्रकारनां कहेवामां आव्यां छे. (निश्चयनये साध्य अने
साधन अभिन्न होय छे.)
(प्रश्न थाय के छठ्ठा सातमा गुणस्थानवर्ति मुनिने भेद साध्य साधन अने शरूमां सुखे शरूआत
केम कहेल छे? के त्यां सातिशय उग्र पुरुषार्थ नथी तेथी तो सुखे करीने एटले सुगमपणे, कठिनता
विना शरूआत बताववा कह्युं छे. जेमणे द्रव्यार्थिकनयना विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपनां श्रद्धानादि करेला
छे एवा सम्यग्ज्ञानी जीवोने तीर्थसेवननी प्राथमिक दशामां (–मोक्षमार्ग सेवननी प्रारंभिक
भूमिकामां) आंशिक शुद्धिनी साथे साथे श्रद्धान–ज्ञान–चारित्र संबंधी परावलंबी विकल्पोना (भेद
रत्नत्रयना) सद्भावना कारणे अनादिकाळथी जीवोने जे भेदवासनाथी वासीत परिणति चाली आवे
छे तेनो तुरत ज सर्वथा नाश थवो कठिन छे.)
पंचास्तिकाय गा. १७० मां कह्युं छे के – संयम तप सहित होवा छतां, नव पदार्थो तथा तीर्थंकर
प्रत्ये जेनी बुद्धिनुं जोडाण वर्ते छे अने सूत्रो प्रत्ये जेने रुचि (प्रीति) वर्ते छे ते जीवने निर्वाण दूरतर
(विशेष दूर) छे.
–टीका अहीं अर्हंतादिनी भक्तिरूप परसमय प्रवृत्तिमां साक्षात् मोक्षहेतुपणानो अभाव होवा
छतां परंपराए मोक्षहेतुपणानो सद्भाव दर्शाव्यो छे. श्री जयसेनाचार्ये कह्युं छे के अज्ञानीना व्रतादि
संबंधी शुभभाव तो सर्वदोष, अनर्थ परंपरानुं कारण छे पण सम्यग्द्रष्टिने सर्व प्रकारना रागमां हेय
बुद्धि होवाथी अनेत्र सहचरहेतुपणे आ जातनो ज शुभराग निमित्तपणे होय छे; अज्ञानीनी
भूमिकानो नहीं एम र८ मूळगुण व्यवहार रत्नत्रयना रागनो ज अभाव करीने, मोक्ष जाय छे– एम
बताववा माटे ते व्यवहारने परंपरा मोक्षहेतुपणुं दर्शावेलुं छे.
जे जीव खरेखर मोक्षने अर्थे उद्यमी चित्तवाळो वर्ततो थको अचिंत्य संयमतपभार संप्राप्त कर्यो
होवा छतां परम वैराग्य भुमिकानुं आरोहण करवामां समर्थ एवी प्रभुशक्ति उत्पन्न करी नही होवाथी
‘पींजणने चोटेल रू’ ना न्याये नव पदार्थो तथा अर्हंतादिनी रुचिरूप (प्रीतिरूप) परसमय प्रवृत्तिनो
परित्याग करी शकतो नथी ते जीव खरेखर साक्षात् मोक्षने प्राप्त करतो नथी परंतु देवलोकादिना
कलेशनी प्राप्तिरूप परंपरावडे तेने प्राप्त करे छे. आम जे जीव खरेखर मोक्षमार्गमां शरूआत करी होवा
छतां चारित्रमां प्रचंड पुरुषार्थथी प्रभुत्वशक्ति प्रगट करतो नथी, त्यां भेदवासीत बुद्धिथी रोकाणो छे.
सम्यक् आनंदनो स्पर्श नयपक्षातिक्रान्तपणे शुद्धोपयोगी अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थवा छतां
तेमांथी उपयोगनुं छूटी जवुं एम वारंवार थया करे छे; अखंड धारवाही निज परमात्मस्वरूपमां
उग्रपणे लीन रहेवुं जोईए ते स्थितिने न पहोंची शके तेटलो काळ तेने योग्य व्यवहारनुं अवलंबन
आवे छे. भान थयुं छे के परम वैराग्यथी अंदर स्थिर ज थवुं छे. जो परमार्थमां ज स्थिर रहेवाने
बळवान थाय तो व्यवहारना भेद उपर जरापण नजर नाखवा मागतो नथी पण खेद छे के
पुरुषार्थनी नबळाईना काळे तेने योग्य शुभ व्यवहार आव्या विना रहेतो नथी. ज्ञानी कोईपण
जातना शुभ रागने हितकर, मददगार मानता नथी केमके जेम जेम स्वरूपनी अंदर परिणति ढळती
जाय छे तेम तेम व्यवहारनो अभाव थतो जाय छे; तेथी ते खरेखर मददगार नथी ज, अभाव ते
भावनुं खरूं कारण नथी.
सम्यग्द्रष्टिनुं ध्येय भूतार्थ, पूर्ण एकरूप छे ज्ञाताभावे परिणम्यो छे तेने छठ्ठा गुणस्थाने
व्यवहारना भेद उपर लक्ष जाय छे पण ते शुभराग