
नथी. परने भोगवी शकतो नथी पण परने भोगववानी वृत्ति कोण करे छे? ज्ञानीने तो साध्य
साधननो सुमेळ अने भूतार्थ स्वरूपनुं परिग्रहण होय छे.
आचरण होय ते महाव्रत पाळे तो पण मिथ्याद्रष्टि छे.
आ श्रद्धा करनार छे अने आ श्रद्धान छे; आ ज्ञेय एटले जाणवा योग्य छे, आ अज्ञेय छे, आ ज्ञाता
छे, आ ज्ञान छे; आ आचरवा योग्य छे, आ आचरवा योग्य नथी, आ आचरनार छे, अने आ
आचरण छे; एम कर्तव्य, अकर्तव्य, कर्ता, कर्मरूप विभागोना अवलोकनवडे जेमने सुंदर उत्साह
उल्लसित थाय छे– एवा तेओ प्राथमीक मोक्षमार्गस्थ जीवो धीमे धीमे मोह रागादिने उखेडता जाय छे;
एटले के चारित्रनी मर्यादाने योग्य वीतरागता अने सरागताना भेदने जाणे छे. अने तेवो राग
आव्या विना रहेतो नथी. एक साधु नग्न मुनि कहेता हता के अमे तो निश्चयमां रहेनारा, अमारे
व्यवहारनुं शुं काम छे? तो एम नथी. एकला निश्चयनो अनुभव तो सर्वज्ञ वीतरागने छे, तेमने
साधक दशानो अनुभव होतो ज नथी. एकलो व्यवहार मिथ्याद्रष्टि होय छे. अहीं तो भेदज्ञानरूप
विवेक सहित निश्चय चारित्रनी भूमिकामां वर्ते छे, त्यां अंशे वीतरागभाव साथे आ जातना शुभ
विकल्प होय छे– तेनो मेळ बतावे छे.
हेय जाणे छे. अरे! मारा पुरुषार्थनी नबळाईथी आ रागनी वृत्ति ऊठे छे– परने लीधे राग ऊठे
छे एम धर्मीजीव मानतो नथी. वारंवार अतीन्द्रिय आत्मानंदमां झुलता होय छे एवा मुनिने
पण छठ्ठा गुणस्थानमां आवा विकल्प होय छे. कोई कहे– अमने कोई विकल्प नथी, नवत्तत्त्वना
विकल्प आवता नथी, विनय, सत्य श्रवण, स्वाध्याय, शास्त्रज्ञाननी जरूर नथी, बस ध्यान करो,
तो ते मिथ्यात्वने घूंटे छे. निर्विकल्प चारित्रनी रमणतामां पडेला मुनिओमां प्रधान गणधरने
पण आवा विकल्प आव्या विना रहे नहीं. एवा भेदने जाणवामां ज्ञाननुं रोकावुं थाय छे तेनुं
नाम व्यवहार छे. आ विकल्पने लावुं ए पोताने आधीन मानता नथी तथा कोई प्रकारना रागने
करवा योग्य मानता नथी तथा कोई प्रकारना रागने करवा योग्य मानता नथी; पण ते काळे
आवो राग होय छे एम जाणवुं ते व्यवहारनयनुं प्रयोजन छे.