वचनथी वक्र न बोले तथा पोताना दोषोने गोपवे नहि–छूपावे नहि पण महा मध्यस्थ साक्षीभावमां
निश्चल रहेवुं. ज्ञाता द्रष्टा स्वभावमां, सावधान रहेवुं, तेनुं नाम आर्जवधर्म छे; तेमां स्वसन्मुखताथी
परिणामोनी शुद्धता तेटलो धर्म छे अने कोई पण वातनी ओथ लई पोताना दोष छूपाववा आदि
वक्रता न थवा दे, सरलता राखे एवा शुभ परिणामने व्यवहार धर्म कहेवाय छे. अज्ञानी जीव
व्यवहारू सरलता राखे ते पुण्य छे.
पराश्रय–व्यवहारना आश्रयथी आत्महितरूप धर्म थशे एम माने मनावे ते वक्रता छे, पोते पोताने
ठगे छे. भेदज्ञानद्वारा ध्रुव ज्ञाता–स्वभावना आश्रये ज धर्म थाय छे. भूमिकानुसार निमित्त, राग
वगेरे होय छे छतां पराश्रयथी कोई प्रकारे धर्म नथी– एम मानवुं – जाणवुं अने स्वसन्मुखतामां
वर्तवुं ते आर्यता–सरलतारूप उत्तम धर्म छे. आम विवेकज्ञान विना बाह्य सरलता पुण्य बंधनुं कारण
छे. मोक्षमार्गमां कहेल आर्जवधर्म स्वावलंबी वीतराग भाव छे अने मन–वचन–कायाना आलंबन
संबंधी सरळतानो भाव ते शुभ राग छे. रागनी, पुण्यनी रुचि छोडी, स्वाश्रयद्रष्टि अने अंदरमां
एकाग्रता द्वारा पोतानो्र शुद्ध चैतन्यना आश्रयमां सावधान रहेतां वक्रतानो भाव उत्पन्न न थवो ते
उत्तम न थवो ते उत्तम आर्जवधर्म छे.
चेष्टा करे छे ते माने छे के हुं बीजाने ठगुं छुं, खरेखर ते पोताने ज ठगे छे, धर्मी अने धर्म जीज्ञासुजीव
पोताना दोषने जाणे, कपट न करे, पोतानो दोष छूपावे नहि पण जेवो होय तेवो बाळकनी माफक
गुरुनी पासे कहे. लोकोमां सरलता राखवी, कपट न करवुं, सत्य बोलवुं एवी घणी वात आवे ते शुभ
भावनुं आचरण छे– तेनो निषेध नथी तेम ज ते उत्तम आर्जव नामे धर्म नथी.
उत्तर– ए जातना रागनी भूमिकावाळाने तेना काळे एवो राग आव्या विना रहे नहीं.
शरीर आदि जडना कार्य आत्मा कोई द्रष्टिथी करी शकतो नथी, पण माने छेके हुं तेनो कर्त्ता छुं;
करे छे. दरेकनां कार्य तेनी योग्यता अनुसार तेनाथी थाय छे, छतां माने