Atmadharma magazine - Ank 233
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 25

background image
फागण: २४८९ : :
छे के हुं करुं तो थाय छे ए मान्यता बे द्रव्यनेत्र एक माननार, पराधिन माननार मिथ्याद्रष्टिनी छे.
प्रश्न:– मकान एनी मेळे बने छे?
उत्तर:– जगतना निश्चित क्रमानुसा, पुद्गळ परावर्तनना नियमानुसार पुद्गळो स्वयं पलटीने
तेने काळे मकान आदि रूपे थाय छे तेनो कोई कर्त्ता हर्ता के स्वामी नथी; लोक व्यवहारमां निमित्तनुं
ज्ञान कराववा बीजाने कर्त्ता कहेवाय छे, पण परना कार्य कोईने आधिन नथी.
आत्मानुं कार्य पोताना आत्मामां ज छे; शरीरनी क्रिया तथा जगतना दरेक पदार्थना कार्य ते ते
द्रव्यथी थई रह्यां छे.
प्रश्न:– जडमां ज्ञान नथी तेमां काम (कार्य) करवानी शक्ति होय?
उत्तर:– हा, ते पण अनादि अनंत पोतानी सर्व शक्तिथी परिपूर्ण छे, जडेश्वर छे, एकलो ज
परमाणु स्वयं उत्कृष्ट गति करीने १४ राजु (असंख्य योजन) गमन एक समयमां करी शके छे, तेमां
कोई चलावनार नथी. ईश्वरनी ईच्छा विना पांदडु न चाले एटले शुं के जड परमाणुओमां क्रियावती
नामनी शक्ति छे तेना विना ते क्षेत्रान्तर न करे पण ते तेनी शक्ति सहित छे. पांदडुं पवनथी चाल्यु
तो पवनने कोण चलावे छे? एम परना कारणे कार्य मानता अनवस्था नामे मोटो दोष आवे छे.
संयोगमां एकता बुद्धिवाळा, परथी कार्य माननारा परमां अनुकूळ– प्रतिकूळ अने ईष्ट अनिष्ट
मानी दुःखी थाय छे. “हुं करुं, हुं करुं, ए ज अज्ञानता, शकटनो भार जेम श्वान ताणे:” वस्तुमां
परिणमन शक्ति छे, तेथी ज तेनी अवस्था थया करे छे. ते ज तेनी व्यवस्था छे, तेमां अन्य कर्त्तानी
जरूर नथी. जगतना दरेक पदार्थ अनादिअनंत छे, तेमां दरेक समये नवी नवी अवस्थानी उत्पत्ति,
जुनी दशानो व्यय अने मूळ वस्तुपणे ते ध्रुव (कायम) रहे छे. एम स्व–परसत्तानो निश्चय करी.
परमा कर्त्ता, भोक्ता अने स्वामीत्त्वनी श्रद्धा छोडी, रागमां कर्त्ता बुद्धि छोडी, पराश्रयथी लाभ
मानवानी श्रद्धा छोडी स्वावलंबी ज्ञायकमात्र स्वरूपनी निर्विकल्प श्रद्धा करे तो सुखनी शरूआत थाय;
अने एम कर्या विना अंशमात्र पण आत्महित थतुं नथी. स्वतंत्रतानी वात लोकोए सांभळी नथी.
उत्तम शौच धर्म
आज दसलक्षणी पर्वना चोथा उत्तम शौच (संतोष) धर्म छे. पूर्ण ज्ञानानंद पवित्र स्वभावना
लक्षे ज्ञातापणे संतोषमां रहेवुं तेमां जेटलो वीतरागभाव छे तेने उत्तम शौच धर्म कहेवाय छे. मुनिनी
मुख्यताथी कथन छे. चारित्र धर्म मोहक्षोभ रहित, रागद्वेष अज्ञान रहित आत्म परिणाम छे. हुं
वीतरागी आनंद घन स्वभावी छुं तेना आश्रये रागद्वेष विषमता रहित परिणाम ते धर्म छे. वर्तमान
चारित्रमां नबळाई जेटलो दोष थाय छे ते ध्रुव स्वभावमां नथी– एम रागादिनुं अकारण एवो पूर्ण
ज्ञानघन स्वभावमां द्रष्टिज्ञान अने लीनता करनारने अतीन्द्रिय आनंदमां तृप्तिरूप सहज संतोष नामे
धर्म होय छे.
सम संतोष जलेन च यः धोवति तृष्णा लोभ मल पुज्जा।
भोजनशुद्धि विहीनः तस्य शुचित्व भवेत् विमलं।।३९७।।
अर्थ: समभाव–रागद्वेष मोह रहित संतोष परिणाम. नित्य ज्ञानानंद स्वभावमां एकाग्रता–
स्वसंवेदनद्वारा अपवित्रतानो व्यय, पवित्रतानी उत्पत्ति ते संतोष छे. एवा सहजानंदमय संतुष्ट
भावरूपी जळथी, तृष्णा अने लोभरूपी मळ समूहने धोवे छे, भोजननी शुद्धि रहित वृत्ति अर्थात्
अति चाहनाथी रहित छे ते मुनिनुं चित्त निर्मळ छे.
भावार्थ: कोई संयोग वियोगमां ईष्ट अनिष्ट भाव न थवो, अर्थात् पोताना परमानंदमय
ज्ञान स्वभावमां ज स्वाश्रय वडे सुख मानवुं अने तेमां लीनता अर्थात्