अनुभवे छे, तेम ज मोतीनी किंमत न समजनार खेडुतनी जेम अज्ञानी जीव अतीन्द्रिय सहज
ज्ञानमय आत्मानुं माप काढी शकतो नथी. ते शरीरनी क्रिया अने रागना विकल्पोवडे आत्माने
समजवा वृथा प्रयास करे छे. वर्तमान दशामां अल्पज्ञान अने रागद्वेष होवा छतां ज्ञानी तेने उपादेय
नथी समजता. ते लागणी–वृत्ततिओने एक समय पूरती क्षणिक विभाव अंस समजे छे. दया, दान,
विनय आदि शुभ अथवा अशुभ वृत्ति आवे पण तेनो स्वामी थतो नथी. परंतु वृत्तिओथी पार हुं
असंग ज्ञानपणे छुं एवा भान सहित छे तेथी अवस्था राग सहित होवा छतां, शुद्धनयद्वारा अव्यक्त
अतीन्द्रिय पूर्ण स्वरूपनो विचार करी शके छे, अने अंशे स्वसंवेदन आनंदनो अनुभव करे छे.
वर्तमान दशामां ज्ञाननो उघाड अल्प होवा छतां अंदर अप्रगटपणे बेहद ज्ञान चड्युं छे– एम
विचारीने, पूर्ण ज्ञानस्वभाव समजणमां लावी शकाय छे; जेमके विश्वमां आकाश क्षेत्रनो विस्तार
केटलो अनंत छे! तेनो विचार करतां मालूम पडे छे के आकाशनुं अनादि अनंतपणुं सर्व क्षेत्रे छे. तेनी
कोई मर्यादा के तेनो अंत बतावी शकातां नथी, छतां अल्पज्ञानीना ज्ञानमां अमर्यादित अनंत क्षेत्रने
दशे दिशामां अनंतपणे जाणवानी ताकात अत्यारे पण छे. आम रागवाळुं अल्पज्ञान प अनंत
आकाश क्षेत्रने ख्यालमां लई शके छे. जो आत्मा, तेना प्रगट ज्ञाननो अंश आटला बधाने ख्यालमां ले
अने याद राखे एटली ताकात प्रगटपणे बतावे छे, तो तेना अंतरंगमां अप्रगट ज्ञानानंद स्वभावनी
बेहद ताकात छे– एम एक क्षणमां पोताना बेहद सर्वज्ञ स्वभावने जाणी, हुं एवो ज्ञान स्वभावी
आत्मा छुं– एम निःसंदेह निर्धार (निर्णय) करी शके छे.
देतां अने एकाग्रता थवाथी निर्मळ श्रद्धा – ज्ञान अने अंशे शान्ति प्रगट थाय तेज वास्तविक धर्म छे,
तेमां धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे, ते ज शरूआतथी स्वाश्रयरूप निश्चय धर्म छे स्वसन्मुखताना पुरुषार्थमां
४–प–६ गुणस्थान स्थित जीवने पोतानी भूमिकानुसार शुभ राग आव्या वगर रहेतो नथी. ते शुभ
रागने उपचार व्यवहार धर्म अथवा स्थूल धर्म कहेवामां आवे छे; ते शुभ राग (व्यवहार रत्नत्रय)
धर्म नथी, परंतु ज्यां अमुक अंशे वीतरागतारू निश्चयधर्म छे त्यां बहारमां आवो शुभराग होय एम
निमित्त बताववा माटे शुभरागने असद्भूत व्यवहारनय द्वारा धर्म अथवा साधन कहेवामां आवे छे.
देव, गुरु शास्त्रनी भक्ति, दया, दाना महाव्रत वगेरेनो शुभराग भूमिकानुसार आव्या वगर रहेतो
नथी; तेथी आवा शुभ रागनो निमित्त तरीके निषेध नथी, परंतु तेने मोक्षमार्ग मानवानो निषेध छे.
ज्ञानीने मुख्यपणे शुद्ध स्वभावनुं वेदन गौण छे. धर्मी–ज्ञानी जीव अशुभथी बचवा शुभनुं अवलंबन ले
छे परंतु तेने हितकर, मददगारपणे मानतो नथी; अथवा शुभरागथी धर्म थशे एम पण मानतो नथी;
ते पुण्यबंधनुं ज कारण छे एम स्पष्ट अभिप्राय तेने होय छे.
आत्मा नित्य ज्ञानानंदनो पिंड छे, तेमां एकमेकपणानी प्रतीति–श्रद्धा–ज्ञान अने एकाग्रता थतां
अतीन्द्रिय झरे छे. साधकदशा प्रगट थई ते ज पणे पूर्ण वीतरागता प्रगट थती नथी, पण वच्चे ४–प–
६ गुणस्थाने स्थित जीवने वच्चे आवी पडती शुभरागनी वृत्तिनुं उत्थान होय छे (व्रत, तप वगेरे)
तेने व्यवहार रत्न–व्यवहार धर्म कहेवामां आवे छे.